पुलिस शिकायत दर्ज करने के लिए सर्वोत्तम अभ्यास क्या हैं

लिस शिकायत दर्ज करने का अनुभव अद्वितीय और साधारण दोनों है, क्योंकि हम इसमें शक्ति, अहंकार, पूर्वाग्रह और अज्ञानता का प्रतिच्छेदन साक्षी हैं। 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), जो आपराधिक कार्यवाही को नियंत्रित करती है, उस चौराहे को आगे करती है। उदाहरण के लिए, धारा 154 (3), पुलिस द्वारा शिकायत दर्ज करने से इनकार करने की संभावना को स्वीकार करती है और साथ ही समाधान के रूप में उच्च अधिकारियों को आगे बढ़ने की प्रक्रिया की सिफारिश करती है। इसलिए, प्रक्रिया दृढ़ता का आह्वान करती है।

धारा 154 (3) इस प्रकार है:  

कोई व्यक्ति जो किसी पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा उपधारा (1) में निर्दिष्ट इत्तला को अभिलिखित करने से इनकार करने से व्यथित हैऐसी इत्तला का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा संबद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है जोयदि इस बात से संतुष्ट हो जाता है कि ऐसी इत्तला से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तोया तो स्वयं मामले का तहक़ीक़ात करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस संहिता द्वारा उपबंधित रीति से तहक़ीक़ात किए जाने का निदेश देगा और उस अधिकारी को उस अपराध के सम्बन्ध में पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी की सभी शक्तियां होंगी।  

ये दो पहलू शिकायत दर्ज करने का प्रयास करना और आगे बढ़ना — और साथ ही धीरज रखना इस प्रक्रिया का आवश्यक भाग बन जाते हैं।  

शिकायत दर्ज करना कानूनी आश्रय लेने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा हैक्योंकि यह एक ऐसा दस्तावेज होता है जिसमें अपराध से सम्बन्धित जानकारी का भण्डार मौजूद है। यह ऐसी जानकारी है जो सीआरपीसी (CrPC) की क्षमता पर लगाम लगाती है और अपराध कानून को आगे बढ़ाती है, चाहे प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के रूप में या एक गैर-संज्ञेय रिपोर्ट (एनसीआर) के रूप में।  

भारत की अपराध न्याय प्रणाली तीन प्रमुख कानूनों द्वारा नियंत्रित है - (1) 1860 भारतीय दण्ड संहिताजो अपराधों को सूचीबद्ध करती है और इसे मूल कानून कहा जाता है; (2) प्रक्रिया से सम्बन्धित कानून के रूप में सीआरपीसी; और (3) 1872 का भारतीय साक्ष्य अधिनियमजिसमें सबूतस्वीकार्यता और साक्ष्य के नियम शामिल हैं 

शब्द शिकायत को सीआरपीसी की धारा 2 (डी) में परिभाषित किया गया हैलेकिन इसका सरल पठन इसमें शामिल इन जटिलताओं को नहीं दर्शाता कि ये जमीन पर कैसी दिखाई पड़ती हैं 

आइए उन जटिलताओं की बारीकी से जाँच करें और प्रासंगिक निर्णयों के प्रकाश में इसमें उन शामिल मुद्दों पर गौर करें जो शिकायतों को दर्ज करने के कुछ सर्वोत्तम तरीकों को सीखने में हमारी सहायता करेंगे 

मुद्दा नं 1 - शिकायत कौन दर्ज कर सकता है?

शिकायत कौन दर्ज कर सकता है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति शिकायत दर्ज कर सकता है जिसका उस मुद्दे से कोई सम्बन्ध नहीं हो 

सीआरपीसी के दो प्रावधान जो हमारे लिए प्रासंगिक हैं वे हैं धारा 154जिका सम्बन्ध प्रथम सूचना रिपोर्टऔर संज्ञान से सम्बन्धित धारा 190 से है। शिकायत दर्ज करने वाले व्यक्ति का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द हैं सूचना से सम्बन्धित या सूचना प्राप्तकर्ता,” जो घायल या एक पीड़ित व्यक्ति जैसे शब्दों के बदले में उपयोग किए जाने वाले शब्द हैं  यह प्रत्यक्ष अंतर दिखाता है किसामान्य परिस्थितियों मेंशिकायत केवल उस व्यक्ति के अनुरोध पर दर्ज की जाती हैजिसे व्यक्तिगत हानि या चोट पहुंची हैक्योंकि यह उसका अधिकार है। इसे कानूनी रूप से लोकस स्टैंडी (अधिस्थिति) कहा जाता है।ii 

हालाँकि, अपराध कानून में, लोकस स्टैंडी का अनुप्रयोग सीमित नहीं है। इसमें यह भी शामिल है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसे अपराध की घटना या कृत्य के बारे में पता है वह शिकायत दर्ज करवा सकता है। न्यायालयों ने मंजूरी दी है कि लोकस स्टैंडी का पराध कानून से कोई सम्बन्ध नहीं है।iii 

अतः कोई भी व्यक्ति अपराध कानून को गति में लाने के लिए शिकायत दर्ज करवा सकता है, सिवाय इसके कि जब कोई इससे मिलता जुलता कानून या अधिनियम या विधि इसके विपरीत बात न कहता हो। लेकिन अब तक, ऐसा कोई कानून मौजूद नहीं है।iv इसके अलावाअपराध कानून इस सिद्धांत का पालन करता है कि एक आपराधिक कृत्य या गलती करना न केवल उस व्यक्ति के सम्बन्ध में अपराध है जिसे हानि या चोट पहुंची हैबल्कि इसे पूरे समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है।v इसलिए, यह राज्य का कर्तव्य है कि वह इस तरह का कृत्य करने वाले व्यक्ति को दंडित करे इससे लोकस स्टैंडी को व्यापक बनाने के विचार को भी बल मिलता है।  

इसलिए, यहाँ पर याद रखने के लिए कुछ बिन्दु दिए गए हैं:  

  1. कोई भी व्यक्ति एक शिकायत दर्ज करवा सकता है;
  2. लोकस स्टैंडी की अवधारणा  अर्थात केवल एक घायल या पीड़ित व्यक्ति को ही एक शिकायत दर्ज करवानी चाहिए  पराध कानून पर लागू नहीं होती।vii 
  3. मौलिक सिद्धांत यह है कि एक आपराधिक कृत्य या भूल सिर्फ एक व्यक्ति के विरुद्ध नहीं बल्कि पूरे समाज के विरुद्ध होती है
  4. आपराधिक कृत्य या भूल करने वाले व्यक्ति को दंडित करना राज्य का कर्तव्य है। 

मुद्दा नं 2 - सीआरपीसी की धारा 2(डी) का स्पष्टीकरण

धारा 2(डी) के अनुसार, एक “शिकायत’ का अर्थ है किसी मजिस्ट्रेट को इस उद्देश्य के साथ मौखिक या लिखित रूप से दिया गया आरोप पत्र है कि वह इस कोड के अधीन किसी व्यक्ति पर कार्यवाही करे, जो चाहे ज्ञात हो या अज्ञात होपर उसने एक अपराध किया हो, लेकिन उसे पुलिस रिपोर्ट शामिल न किया गया हो। स्पष्टीकरण  एक पुलिस अधिकार के द्वारा किसी ऐसे मामले में बनाई गई रिपोर्ट, जो जाँच के बाद, एक गैर-संज्ञेय आपराधिक कृत्य का खुलासा करती है, उसे शिकायत के योग्य माना जाएगा; और जिस पुलिस अधिकारी के द्वारा वह रिपोर्ट बनाई गई है उसे शिकायतकर्ता माना जाएगा। 

यह एक कानूनी अवलोकन प्रदान करती हैलेकिन यदि हम इस धारा को बेहतर ढंग से समझना चाहते हैं तो इसके स्पष्टीकरण की जरूरत पड़ती है। इस बात से सम्बन्धित दुविधाएँ हैं कि एक शिकायत कैसे दी जानी चाहिएशिकायत बनाने हेतु क्या कहा जाना चाहिएकितनी सूचना पर्याप्त हैयदि कोई अनुसरण योग्य प्रारूप होतो क्या से किसी ऐसी भाषा में लिखा जा सकता है जिसे कोई जानता हो या उसे इसे लिखने के लिए किसी व्यक्ति/पुलिस को सुनाया जा सकता है, और जो सूचना दी जा रही है वह प्रतिलेखन में गुम न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए कौन सी सावधानियाँ बरती जानी चाहिए।  

तो, जो किया जाना चाहिए वह इस प्रकार हैं:  

मौखिक या लिखित रूप में  

कानून शिकायत को मौखिक या लिखित रूप में देने की अनुमति प्रदान करता है।  

एक शिकायत लिखने के लिए किसी विशेष प्रारूप का अनुसरण करने की जरूरत नहीं है।  

शिकायत संक्षिप्त, सटीक और विषयानुकूल होनी चाहिए।  

यदि कोई शिकायत पुलिस या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दर्ज की गई है परंतु इसे किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा लिखा गया हैतो हस्ताक्षर करने से पहले लिखी गई जानकारी का सत्यापन करना महत्वपूर्ण होता है। सीआरपीसी की धारा 154 में आदेश दिया गया है कि किसी शिकायत की विषय-सामग्रीयदि स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किसी के निर्देशन में लिखी गई होतो उसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। और अगर कोई अंतर है या किसी की आत्म संतुष्टि के हिसाब से कुछ ठीक ढंग से नहीं लिखा गया हैतो नरम शैली में उसकी सुधार की मांग की जा सकती है। 

किसी ज्ञात या अज्ञात व्यक्ति ने अपराध किया है  

यहाँ पर अपराध कोई ऐसी घटना या किसी सम्बन्ध में लगाया गया आरोप है जिसने किसी को व्यथित किया है और उसके लिए पुलिस से आपराधिक कार्यवाही करने की मांग की जा रही है। शिकायत दर्ज करते समयइसे एक आरोप माना जाएगा। परंतु यह शिकायत का दिल और जान है क्योंकि यह पुलिस के द्वारा की जाने वाली कार्यवाही के अगले कदम को तय करेगा। अपराध या लगाया जा रहा आरोप और उसका वर्णन करने का तरीका, शिकायत के निर्णायक कारक होंगे। इसलिए शिकायत में इस्तेमाल की गई भाषा भी एक अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक अच्छी शिकायत वह है जो एक ऐसी भाषा का उपयोग करती है जो सरलसमग्र है और पूरी घटना जिस तरह से घटित हुई हैउसका एक सटीक विवरण देती है। मुकदमा दर्ज करने का तरीका और पुलिस का जाँच करने का तरीका प्रमुख तौर किए गए अपराध की प्रकृति पर निर्भर है। 

अपराध / आरोप के विवरण में सारी ज्ञात जानकारी का वर्णन होना चाहिएजिसमें नामतिथिसमय और घटना का स्थान और इनके जैसे अन्य विवरण शामिल हो सकते हैं।xii 

अपराध या घटना का वर्णन करने के लिए बयानयदि सम्भव हो तोउस विशेष घटना तक ही सीमित होना चाहिए। अन्य सम्बन्धित चीजों या अतीत की कुछ घटनाओं के अनावश्यक संदर्भ से जानबूझकर बचना चाहिए जब तक कि वह अतिरिक्त जानकारी शिकायत को महत्वपूर्ण न बनाती हो - क्योंकि इससे शिकायत का प्रभाव कम हो सकता है इसलिए, यहाँ पर सावधानी बरतने की जरूरत है।  

यह उचित है कि घटना का विवरण बिना अतिशयोक्ति के सच्चाई से सुनाया जाए। और यदि शिकायत में किए जा रह दावों को प्रमाणित करने के लिए कोई दस्तावेज़ मौजूद हों, तो उन्हें उस शिकायत के साथ संलग्न किया जाना चाहिए  हालाँकि यह अनिवार्य नहीं है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि लिखित शिकायत वास्तविकता के करीब है जिसकी बाद में विश्वसनीय और स्वतंत्र साक्ष्य के द्वारा पुष्टि की जा सकती है।

यदि कोई व्यक्ति तिथि, समय या सटीक स्थान के विषय में निश्चित न हो, तब शिकायत को उपयुक्त बनाने के लिए इस प्रकार के भावों जैसे लगभग या आस-पास या निकट या के करीब का उपयोग किया जा सकता है।  

यदि किसी ने घटना को नहीं देखा हैलेकिन केवल उसके परिणाम को देखा है - उदाहरण के लिएकिसी व्यक्ति के सिर से खून बहते हुए देखना बिना यह जाने कि उस पर किस ने हमला किया है  तो परिणाम का विवरण और उस अपराध को करने वाले की सूचना या अपराधियों के बारे में ऐसा कोई भी विवरण जिसे पीड़ित से हासिल किया जा सकता है, एक शिकायत देने के लिए पर्याप्त है।

यह पता लगाना महत्वपूर्ण है कि जिस अपराध /आरोप की सूचना दी जा रही है वह संज्ञेय है या गैर-संज्ञेय। सीआरपीसी की अनुसूची II की एक तालिका में अपराधों को सूचीबद्ध किया गया है और उन्हें संज्ञेय या गैर-संज्ञेय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 

शिकायत में अपराध का समग्र वर्णन प्रस्तुत करने के लिए सूझबूझ की जरूरत पड़ती है, जिसमें सभी पहलू शामिल होते हैं जैसे कि यह कैसे हुआयह कब हुआकिसने क्या कियाचोट कैसे लगी क्या कोई कष्टदायक पीड़ा थी या खून तो नहीं बह रहा थाक्या किसी हथियार का इस्तेमाल हुआ था या क्या हाथ और पाँवों से अत्यधिक शारीरिक बल का प्रयोग किया गया था, क्या कोई सूजन या जलने के निशान थे, गाली के कौन से सटीक शब्द इस्तेमाल किए गए थे, टूटी या क्षतिग्रस्त चीजों का विवरण, और इत्यादि।  

मजिस्ट्रेट के सामने शिकायत करना  

मजिस्ट्रेट के सामने एक निजी शिकायत करने के संदर्भ में शब्द शिकायत को सीआरपीसी की धारा 200 के तहत परिभाषित किया गया है। हालांकि, इसका सार यह है, इसमें यह समझ निहित होती है कि एक अपराध से सम्बन्धित जानकारी को एक उच्च अधिकारी के ध्यान में लाया जाना चाहिए। इसलिए शिकायत पुलिस के स्टेशन हाउस अधिकारी, या एक इंस्पेक्टर, या सब-इंस्पेक्टर को सम्बोधित करते हुए की जानी चाहिए। बड़े मामलों के संदर्भ में, शिकायत में पुलिस आयुक्तपुलिस अधीक्षक और पुलिस महानिरीक्षक को संबोधित किया जाता है। जब एक निजी शिकायत दर्ज की जाती है तो इसे मजिस्ट्रेट को संबोधित किया जाता है।  

उद्देश्य कार्यवाही की मांग करना है  

शिकायत लिखते समय उसकी मंशा को स्पष्ट रूप से अनुरोध के रूप में व्यक्त किया जाना चाहिए ताकि कार्यवाही की जाए। यदि कोई वांछित कार्रवाई के बारे में स्पष्ट है - उदाहरण के लिएकृपया उन्हें बुलाएं और समझौता करवाएं, या कृपया उन्हें बुलाएं और चेतावनी दें” या कृपया उनसे कहें कि वे हमें परेशान न करें” या “एक एफआईआर दर्ज करें और उपयुक्त कार्यवाही करें” या “कृपया शिकायत दर्ज करें” या “सिर्फ इस पर आपका ध्यान ले जाना चाहता हूँ”  

मुद्दा नं 3 - क्या पुलिस को आरोप की सच्चाई का पता लगाने के लिए प्राप्त शिकायत की प्रारंभिक जाँच करनी चाहिए?

जब कोई पुरुष/महिला पुलिस अधिकारी शिकायत प्राप्त करता है तो उसे क्या करना चाहिएइसके बारे में प्रतिक्रिया प्रक्षेपवक्र विविध रहा हैजिसके परिणामस्वरूप भ्रम और अस्पष्टता उत्पन्न होती है। पुलिस इस जानकारी का पता लगाने का प्रयास करेगी कि क्या यह शिकायत संज्ञेय अपराध से सम्बन्धित है या गैर-संज्ञेय अपराध से। सीआरपीसी की धारा 2 (सी) में कहा गया है कि संज्ञेय अपराध के अधीन पुलिस बिना वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकती है। और धारा 2 (एल) में कहा गया है कि गैर-संज्ञेय अपराध मेंपुलिस किसी व्यक्ति को केवल तब गिरफ्तार कर सकती है जब उन्होंने मजिस्ट्रेट से गिरफ्तारी की अनुमति ली हो। 

यह भी देखा जाता है कि शिकायत दर्ज करते समयपुलिस शिकायतकर्ता की शिकायत या शिकायत के विवरण की सच्चाई पर सवाल उठाती है। हाँ तक कि वे आरोपी की खूबियों का बचाव करने की सीमा तक भी चले जाते हैं। पुलिस शिकायत की सच्चाई का पता लगाने के नाम पर सबूत भी मांग सकती है। और परिणामस्वरूप, देरी होती है। इसलिए शिकायतकर्ताअक्सर तनावग्रस्त या निराश हो जाते हैंया इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि शिकायत दर्ज करना एक बड़ा संघर्ष है और अंत मेंहार मान लेते हैं 

इसलिए, यहाँ पर याद रखने के लिए कुछ बातें दी गई हैं:  

  1. यदि शिकायत ऐसे अपराध से सम्बन्धित है जो संज्ञेय हैतो पुलिस को बिना देरी किए शिकायत लिखनी चाहिए और एफआईआर दर्ज करनी चाहिए;
  2. शिकायत की सच्चाई का पता लगाने के लिए पुलिस को शिकायत की कोई प्रारंभिक जाँच नहीं करनी चाहिए;
  3. सीआरपीसी की धारा 154 में “करेगी” शब्द का उपयोग किया गया है और इसलिए पुलिस की भूमिका के बारे में कोई अस्पष्टता नहीं है;
  4. पुलिसएफआईआर दर्ज करने के बाद ही अपराध की जाँच कर सकती है।

मुद्दा नं 4 - “जनरल डायरी,” “एफआईआर रजिस्टर” और “केस डायरी” को समझना

शिकायत दर्ज करने जा रहे लोगों के सामने एक और चुनौती होती है कि पुलिस उन्हें बताए कि वे जनरल डायरी/स्टेशन डायरी/ दैनिक डायरी में सूचना/आरोप दर्ज करेंगेऔर फिर यह तय करने के लिए प्रारंभिक जाँच करेंगे कि एफआईआर दर्ज की जा सकती है या नहीं। न्यायालयों ने इस चलन पर असहमति जताई है और कहा है कि यह सीआरपीसी की धारा 154 के दायरे में नहीं आतीजिसमें डायरी शब्द शामिल नहीं है। 

इसलिएपुलिस डायरियों/पुस्तकों को इस्तेमाल करती है और निम्नलिखित बातें उनकी प्रासंगिकता बताती हैं: 

एफआईआर पुस्तकएफआईआर पुस्तक एक रजिस्टर है इसमें 200 पृष्ठ होते हैं। हर पंजीकृत एफआईआर को इसी पुस्तक में दर्ज किया जाता है। हर एफआईआर की एक प्रति अधिकार क्षेत्र के न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है। एफआईआर पुस्तक का वार्षिक आधार पर एक अलग संख्या संदर्भ होता है। इस पुस्तक का ज़िक्र सीआरपीसी की धारा 154 में मिलता है।

जनरल डायरी: जनरल डायरी एक रजिस्टर है जिसमें पुलिस एफआईआर का मूल उद्देश्य और मूल तथ्यों पर जाती हैयदि 1861 के पुलिस अधिनियम की धारा 44 की अधीनता में एफआईआर दर्ज की जाती है। इस डायरी में एक पुलिस स्टेशन में हर दिन होने वाले सभी लेन-देन से संबंधित विवरण भी होते हैं जैसे कि अधिकारी कब आते हैंवे कब प्रस्थान करते हैंकिसने कार्यभार संभाला और कब और कब उन्हें छुट्टी मिलीप्रत्येक अधिकारी के कर्तव्योंऔर इस तरह की हर जानकारी को कालानुक्रमिक ढंग से दर्ज किया जाता है। इस डायरी की प्रतिलिपि उच्च पुलिस अधिकारी को भेजी जाती है। जनरल डायरी को “स्टेशन डायरी” या “स्टेशन हाउस रजिस्टर” भी कहा जाता है।  

केस डायरी: जैसे-जैसे पुलिस अपनी जाँच करती है, उन्हें एक डायरी बनाने की जरूरत पड़ती है जिसमें वे दैनिक आधार पर जाँच से सम्बन्धित सारी जानकारी दर्ज करते हैं। इसमें इस तरह की सारी जानकारी मौजूद होती है जैसे कि पुरुष/महिला अधिकारी को अपराध से सम्बन्धित जानकारी कब प्राप्त हुईजाँच किस समय शुरू हुई और यह कब समाप्त हुई, अधिकारियों के द्वारा उठाए गए विभिन्न कदम, अधिकारी के द्वारा घूमे गए स्थानों के नाम, पुरुष/महिला अधिकारी जिन लोगों से मिली उनके नाम, और यदि कोई बयान दर्ज किया गया है तो उस मुलाकात का विवरण, और जाँच कैसी चल रही है इसका एक विवरण उक्त डायरी को संदर्भित किया जाता है सफाई से पृष्ठों को अंकित किया जाता है और पुलिस यदि चाहे तो वे न्यायालय में अपनी स्मृति हेतु इसका प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। अभियुक्त को भी न्यायालय में उन्हें चुनौती देने के लिए इन प्रविष्टियों को मँगवाने का अधिकार है।

मुद्दा नं 5 - प्रथम सूचना रिपोर्ट

दी गई शिकायत के आधार पर, पौलुस शिकायत के विवरण को पढ़ती है और देखती है कि क्या आरोप किसी संज्ञेय अपराध का ज़िक्र करते हैं। यदि ऐसा है, तो वे तुरंत सीआरपीसी की धारा 154 के अधीन एफआईआर लिखने के लिए आगे बढ़ते हैं। एफआईआर को शिकायत नहीं समझा जा सकता। इसका प्रमुख उद्देश्य कानून को गति प्रदान करना है, और इसके साथ ही जाँच प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। हालाँकि, साक्ष्य की स्थिति में, न्यायालय एफआईआर को एक ठोस सबूत नहीं मानतायद्यपि इसका इस्तेमाल किसी गवाह के समर्थन या विरोध या यहाँ तक कि उसे अयोग्य ठहराने के लिए भी किया जा सकता है।

मुद्दा नं 6 - जवाबी- शिकायतें

ऐसे अवसर भी आते हैं जब एक झगड़े में शामिल दोनों पक्ष शिकायत दर्ज करवाने के लिए पुलिस थाने जाते हैं और पुलिस कई बार एक ही शिकायत दर्ज करती है, और दूसरी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर देती है। जवाबी-शिकायत का विचार यह है कि यद्यपि शिकायत का आधार एक ही घटना है  दोनों पक्षों के पास घटना के एक प्रतिद्वंद्वी संस्करण का वर्णन करते हुए एक शिकायत करने का विकल्प मौजूद होता है। सीआरपीसी के अनुसार, जब एक अभियुक्त के विरुद्ध शिकायत दी जाति है और जाँच शुरू हो जाती है तो सीआरपीसी की धार 162 के अधीन उसी शिकायतकर्ता के दूसरी शिकायत करने पर रोक लगा दी जाती है। लेकिन यदि उसी घटना के बारे में कोई प्रतिरोधी विवाद मौजूद हों। तब उस मामले में, हर विवाद एक अलग एफआईआर का रूप ले लेगा और जिन पर एक साथ और समानांतर जाँच की जा सकेंगी।

मुद्दा नं 7 - इनकार

यह एक ऐसी सम्भावना है शायद जिसका सामना शायद कई लोगों ने शिकायत लिखवाने या एक एफआईआर लिखवाने का प्रयास करते समय किया है सीआरपीसी की धारा 154 (3) एक प्रक्रिया की सिफारिश करती है जिसमें उच्च अधिकारियों, जैसे कि पुलिस अधीक्षक और अन्य अधिकारी जिन्हें उस सम्बन्धित पुलिस स्टेशन पर पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार प्राप्त है, उन्हें सूचित करना है कुछ स्थितियों में पुलिस शिकायत दर्ज करने से मना कर सकती है, ऐसी परिस्थितियों में, सम्बन्धित पुलिस स्टेशन से एक पावती प्राप्त की जानी चाहिए कि उन्हें यह जानकारी प्राप्त हो चुकी है। फिर उसी पावती को सीआरपीसी की धारा 200 के अधीन शिकायत के साथ निजी शिकायत के रूप में संलग्न किया जा सकता है, तथा मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है सीआरपीसी की धारा 156 (3) के अधीन एफआईआर दर्ज करने या जाँच करने के लिए मजिस्ट्रेट से निर्देश मांगा जा सकता है। यदि दिखाने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है कि शिकायतकर्ता द्वारा पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज करने का प्रयास किया गया थातो मजिस्ट्रेट द्वारा सीआरपीसी की धारा 156 के तहत निर्देश देने से इनकार करने की अत्यधिक सम्भावना होती है।  

मुद्दा नं 8 - भूल और उनके परिणाम

शिकायत दर्ज करते समय शिकायतकर्ता के सामने कई चुनौतियां होती हैं। ऐसा समय आ सकता है जब हम महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख करना भूल जाते हैंउस घटना में शामिल लोगों के नामों का उल्लेख करना भूल जाएँघाव या चोट का विवरण करना भूल जाएँउपयोग किए गए हथियारों का विवरण और कभी-कभी खुद हमले से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण ठोस बातों का उल्लेख करना भूल जाएँ न्यायालयों ने शिकायतकर्ता की शारीरिक और मानसिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए इन मुद्दों पर ध्यान दिया है और कुछ निम्नलिखित व्यापक निष्कर्ष प्रदान किए हैं: 

  1. एफआईआर को अत्यधिक विस्तृत होने की जरूरत नहीं है; 
  2. न्यायालय शिकायतकर्ता की परिस्थितियों को ध्यान में रखेगाजिसमें पुरुष/महिला की शारीरिक और मानसिक स्थिति भी शामिल हैंऔर यह सुनिश्चित करने के लिए सीमित सीमा तक ही सावधानी बरतें कि कोई झूठा मनगढ़ंत आरोप न हो।
  3. ऐसे मामलों में सबूतों की सराहना करते हुएजिनमें लोगों की भीड़ शामिल होती हैन्यायालयों ने माना है कि गवाहों के लिए उस गैरकानूनी समूह के प्रत्येक व्यक्ति द्वारा निभाई गई भूमिका का सही वर्णन कर पाना सम्भव नहीं हैऔर यह निर्देश दिया है कि ऐसे सबूतों को सावधानी से परखा जाए ताकि ऐसे सच्चे अंशों को पहचाना जा सके जिन पर भरोसा किया जा सकता है;
  4. कुछ स्थितियों मेंअपराध की घटना से सम्बन्धित विवरण गायब हो सकता है या हो सकता है उसका उल्लेख न किया जाएलेकिन वर्णित तथ्यों के प्रारूप ढाँचे की गवाहों के द्वारा उनके कथन में पुष्टि की जा सकती है। इस मामले में सिर्फ भूल या बारीकियों को वर्णन न करना केस को कमजोर नहीं करेगा
  5. यदि अभियुक्त की पहचान करने में असमर्थता का पर्याप्त स्पष्टीकरण मौजूद हो तो उन आरोपी व्यक्ति/यों के नामों का उल्लेख करने में भूल होने जो गैरकानूनी कृत्य के लिए जिम्मेदार हो सकते हैंशिकायत या शिकायतकर्ता की सच्चाई पर कोई संदेह उत्पन्न नहीं करता है;  
  6. शिकायत में गवाहों में से किसी के भी नाम का जिक्र करने की भी जरूरत नहीं है;
  7. यदि शिकायत में बताए अनुसार तथ्य भरोसे के योग्य निकलते हैं, तब यदि हमले से सम्बन्धित विवरण छूट जाए, तो इससे शिकायतकर्ता के केस पर प्रभाव नहीं पड़ेगा; और  
  8. हमले में हथियार के नाम का वर्णन करने से चूक जाना भी केस को प्रभावित नहीं करेगा।  

याद रखने हेतु एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि शिकायत स होनी चाहिए और न्यायालय के लिए विश्वसनीय होनी चाहिएऔर किसी भी भूल कोदि पर्याप्त रूप से समझाया गया होतो उससे शिकायत कमजोर नहीं होगी।