भारत में धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा में अर्ध-न्यायिक निकायों की भूमिका

भारत का संविधान सभी व्यक्तियों के लिए मौलिक अधिकारों या बुनियादी मानव अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। भारत विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक आस्थाओं वाले विविध भाषाई और जातीय समूहों का देश है और इनमें से कई समूह अल्पसंख्यक हैं। 8 अगस्त 1947 के दिन, अल्पसंख्यक सलाहकार समिति के अध्यक्ष ने, भारत की संविधान सभा के अध्यक्ष को अल्पसंख्यकों को प्रदान किए जाने वाले अधिकारों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की।

उसमें लिखा था, “हम यह स्पष्ट करना चाहते हैंयद्यपिअल्पसंख्यकों की समस्याओं के प्रति हमारा सामान्य दृष्टिकोण यह है कि राज्य को इस तरह चलाया जाए कि वे सिर्फ इस तथ्य के कारण उत्पीड़ित महसूस न हों कि वे अल्पसंख्यक हैं बल्कि इसके विपरीतउन्हें महसूस होना चाहिए कि उन्हें राष्ट्रीय जीवन में समाज के किसी भी अन्य वर्ग के समान ही सम्मानपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मिली है। विशेष रूप सेहमें लगता है कि यह राज्य का मौलिक कर्तव्य है कि हम उन अल्पसंख्यकों को आगे लाने के लिए विशेष कदम उठाएं जो सामान्य समाज के स्तर पर पिछड़े हुए हैं।

उस समय के नेताओं के बीच की चर्चाएं उस अराजकता को दर्शाती हैं जो दो नए राष्ट्रों - भारत और पाकिस्तान के विभाजन और गठन के बाद फैली थी विभाजन के दौरान हुए भयानक नरसंहार से भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों के मन में एक गहरी असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी इसका उल्लेख न्यायमूर्ति डी. एम. धर्माधिकारी द्वारा बाल पाटिल और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में दिए गए निर्णय में किया गया था। एच. एम. सीरवाई की पुस्तक कॉन्स्टिट्यूशनल लॉ ऑफ इंडिया”  के “पार्टीशन ऑफ इंडिया  लेजेंड एण्ड रीलिटी” नामक अध्याय का संदर्भ देते हुए निर्णय में कहा गया था:  

यह विभाजन की इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध है कि भारत के संविधान को अंतिम आकार देते समययह जरूरी समझा गया कि मुस्लिमों और अन्य धार्मिक समुदायों के मन में आने वाली आशंकाओं और भय का निराकरण उन्हें उनके धार्मिकसांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की विशेष गारंटी और सुरक्षा प्रदान करने के द्वारा किया जाए। स्वतंत्र भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए इस तरह की सुरक्षा जरूरी थी क्योंकि भारत के विभाजन के बाद भीभारत के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले मुसलमानों और ईसाइयों जैसे समुदायों ने भारत में उसकी मिट्टी की संतान बनकर रहने का चुनाव किया था।  

उपरोक्त लक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए ही संविधान निर्माताओं ने भारत के संविधान में अनुच्छेद 25 से 30 का समूह संयोजित किया। शुरूआत में अल्पसंख्यकों को धर्म और राष्ट्रीय स्तर के आधार पर मान्यता दी गई जैसे मुसलमानईसाईएंग्लो-इंडियन और पारसी। मुसलमानों ने सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय का निर्माण किया क्योंकि भारत में मुग़ल काल सबसे लंबा था जिसके बाद ब्रिटिश राज आया जिनके दौरान कई भारतीयों ने मुस्लिम और ईसाई धर्मों को अपना लिया था।  

संविधान के निर्माता सभी समुदायों को समान सुरक्षा प्रदान करने और इस देश की एकता सुनिश्चित करने के महत्व के बारे में अच्छी तरह से जागरूक थे। संविधान में मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के अध्याय बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही समूहों को सांस्कृतिक और धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। इसके अलावा वे समाज के संवेदनशील और कमजोर वर्गों की रक्षा भी करते हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे आयोगों की स्थापना की गई है। इन आयोगों को अर्ध-न्यायिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और ये पूछताछ, तथा जाँच कर सकते हैं और सरकारों को सुझाव भी प्रदान कर सकते हैं। 

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग,

पृष्ठभूमि 

अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना करते समयगृह मंत्रालय ने 12 जनवरी 1978 को अपने स्वीकृत प्रस्ताव में उल्लेख किया थाकि 

संविधान में प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों और कानूनों को लागू करने के बावजूदअल्पसंख्यकों में असमानता और भेदभाव की भावना बनी रहती है। धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को बनाए रखने और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिएभारत सरकार अल्पसंख्यकों को प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों के अमल को सबसे अधिक महत्व देती है और दृढ़ता से मानती है कि समय-समय पर स्थापित केन्द्रीय और राज्य कानूनों और सरकारी नीतियों तथा प्रशासनिक योजनाओं मेंसंविधान में अल्पसंख्यकों को प्रदान किए गए सभी सुरक्षा उपायों के अमल और कार्यान्वयन के लिए प्रभावी संस्थागत व्यवस्था की तत्काल आवश्यकता है     

यदि इस सम्बन्ध में कोई प्रश्न हों कि संविधान में दिए गए सुरक्षा उपायों के बावजूद अल्पसंख्यकों के लिए विशेष आयोग का गठन क्यों किया जा रहा है, तो स्वीकृत प्रस्ताव का यह भाग उनका उत्तर देने का प्रयास करता है। 

1984 में, अल्पसंख्यक आयोग को गृह मंत्रालय से अलग कर दिया गया और कल्याण मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। आठ वर्ष बाद, जब राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 (एनसीएम एक्ट) अभिनीत किया गया, तो राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को एक वैधानिक निकाय बना दिया गया।  

23 अक्तूबर 1993, भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय द्वारा एक राजपत्रित अधिसूचना जारी की गई, जिसमें पाँच धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया था मुस्लिमईसाईसिखबौद्ध और पारसी। 27 जनवरी 2014v की अधिसूचना मेंजैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक समुदायों की सूची में शामिल कर लिया गया। 

यहाँ पर यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अल्पसंख्यक शब्द की एकमात्र परिभाषा एनसीएम अधिनियम की धारा 2(c) में पाई जाती है। परंतु वहाँ भीयह परिभाषा की तरह नहीं है बल्कि एक प्रावधान की तरह है जो केंद्र सरकार को यह तय करने का अधिकार देता है कि कौन अल्पसंख्यक हो सकता है। यहाँ तक कि संविधान भी अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं करताभले ही इसके कुछ अनुच्छेदों में इसका उपयोग ही क्यों  हुआ हो। 

एनसीएम के कार्य  

एनसीएम अधिनियम के अनुसार, धारा 9 आयोग को यह सुनिश्चित करने के लिए कई शक्तियाँ और कार्य प्रदान करती है कि इस देश की धर्मनिरपेक्ष परंपराएं संरक्षित रहें। उपधारा (1) के तहत इन कार्यों में से कुछ इस प्रकार हैं: 

आयोग अल्पसंख्यकों के विकास में प्रगति की निगरानी कर सकता है और सुनिश्चित कर सकता है कि सुरक्षा उपाय प्रदान किए जा रहे हैं।  

आयोग सुझाव प्रदान कर सकता है ताकि इन सुरक्षा उपायों को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बेहतर ढंग से लागू किया जा सके।  

जब अल्पसंख्यकों को इन अधिकारों और सुरक्षा उपायों से वंचित किया जा रहा हो तब आयोग के पास शिकायत लेकर पहुंचा जा सकता है और साथ यह उन मामलों को उचित अधिकारियों के सामने भी उठा सकता है।  

आयोग अल्पसंख्यकों के साथ-साथ उनकी सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक जरूरतों के विरुद्ध भेदभाव पर अध्ययन और अनुसंधान कर सकता है। 

अधिनियम की धारा 9(1) में दिए गए आयोग के सभी उपरोक्त कार्य छह अधिसूचित समुदायों - मुस्लिमईसाईसिखबौद्धपारसी और जैनियों से सम्बन्धित हैं।  

धारा 9 की उपधाराएं (2) और (3) सुनिश्चित करती हैं कि इन सुझावों को केंद्र सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों में ले जाया जाए। परंतु जब मामला राज्य सरकार से सम्बन्धित हो, तो उन्हें उनकी सम्बन्धित विधानसभाओं में ले जाया जाता है।    

धारा 9 की उपधारा (4) में कहा गया है कि अपने कार्य करते समय, आयोग को निम्नलिखित मामलों के सम्बन्ध में सिविल न्यायालय की सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी: 

भारत के किसी भी हिस्से के किसी भी व्यक्ति को बुलाना और उपस्थित रहने का आदेश देना और शपथ के अधीन उनकी जांच करना;  

किसी भी दस्तावेज की खोज और प्रस्तुत करने की मांग करना;  

साक्ष्यों को शपथपत्रों पर प्राप्त करना; 

किसी भी न्यायालय या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकार्ड या प्रतिलिपि की मांग करना; तथा  

आयोगों को गवाहों और दस्तावेजों तथा किसी ऐसे अन्य मामले की जाँच करने का आदेश जारी करना जिसे निर्धारित किया जा सकता है।  

वार्षिक शिकायतों के आंकड़ों के अनुसारविषय-वार शिकायतों” के तहतआयोग ने धार्मिक अधिकार के अंतर्गत प्राप्त शिकायतों की कुल संख्या साझा की: 

2017-18 – 56 

2018-19 – 82 

2019-20 – 40

धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने में एनसीएम की भूमिका  

एनसीएम और राज्य अल्पसंख्यक आयोगों के द्वारा किया गया अधिकांश कार्य केंद्र और राज्य सरकारों के साथ उनके सद्भाव बनाए रखने पर निर्भर करता है। इसलिए विशेषतः मतभेद की सम्भावना अथवा मतभेद होने पर स्वतंत्र रूप से अपने दर्शन को कार्यान्वित करना कठिन हो जाता है। 1978 में अपनी स्थापना के बाद से आयोग द्वारा निभाई गई भूमिका के महत्वपूर्ण अध्ययन परकानून के प्रोफेसर और एनसीएम के पूर्व अध्यक्ष ताजिर महमूद के हवाले से: 

“मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि एक के बाद एक आयोगों की श्रृंखला ने देश में अल्पसंख्यक की स्थिति में सुधार के लिए कोई प्रयास नहीं किए। निस्संदेह, उन्होंने किए हैं  उन्होंने यह सब प्रयास उन लोगों की विचारधारा और विवेक के अनुसार किए। परंतु उनके दृष्टिकोण, शासकों के लिए प्रतिकूल होने पर आयोगों की वार्षिक रिपोर्टों के पृष्ठों तक ही सीमित रहे। देश में अल्पसंख्यक की स्थिति पर 1998 की मेरी रिपोर्ट मेंमैंने निष्कर्ष निकाला था: ‘यदि संसदीय चार्टर के तहत आयोग की सलाहकारपरामर्शदात्री और सामंजस्यपूर्ण भूमिका को एक के बाद एक सरकारों द्वारा नजरअंदाज नहीं किया गया होतातो देश में अल्पसंख्यक की स्थिति इतनी बुरी नहीं होती। 

एक के बाद एक सरकारें अल्पसंख्यकों की स्थितियों की जाँच करने या प्रतिकूल घटनाओं की जाँच करने के लिए विशेष आयोग और समितियाँ गठित करती आई हैं। हमने देखा है कि ये आयोग और समितियाँ अपने काम को लगन से करने और रुचिकर रिपोर्टें प्रदान करने में सक्षम रहीं हैं। कुछ सबसे उल्लेखनीय घटनाएंजिनके कारण इन निकायों का निर्माण हुआ, इस प्रकार थीं:  

दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के मुंबई सांप्रदायिक दंगों की जाँच के लिए श्रीकृष्णा आयोग या न्यायमूर्ति बी.एनश्रीकृष्णा जाँच आयोग। 

रंगनाथ मिश्रा आयोग जो धार्मिक और भाषाई आधार पर सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण की आवश्यकताओं की जाँच करने के लिए था।

श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट

25 जनवरी 1993 के दिन, काँग्रेस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार ने न्यायमूर्ति बी.एनश्रीकृष्णा के अधीन उन सांप्रदायिक दंगों की जाँच करने के लिए एक आयोग का गठन किया जिन्होंने अयोध्या, उत्तर प्रदेश में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुंबई को घेर लिया था।  

इंडियन एक्सप्रेस ने श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट और कार्यवाही के सम्बन्ध में अपने लेख में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया: 

साक्ष्य की रिकॉर्डिंग 24 जून 1996 को शुरू हुई और 4 जुलाई 1997 को समाप्त हो गईइस दौरान आयोग ने 502 गवाहों के बयान दर्ज किए। उनके बयानों से 9,655 पृष्ठ भर गए। आयोग ने 2,903 ऑन रिकॉर्ड दस्तावेजों को सबूत (लगभग 15,000 पृष्ठोंके रूप में लिया और 536 आदेश पारित किए। और आयोग के समक्ष 2,126 हलफनामे दायर किए गएजिनमें से दो सरकार द्वारा549 पुलिस द्वारा और 1,575 जनता के सदस्यों द्वारा दायर किए गए थे। 

फरवरी 1998 में प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्ट मेंआयोग ने कहा कि दिसम्बर 1992 में मुस्लिमों द्वारा किए गए दंगों का चरण नेताविहीन और भड़की हुई मुस्लिम भीड़ की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। इसमें यह भी कहा गया था कि जनवरी 1993 के चरण की शुरूआत दिनांक 6 से 'हिंदु सांप्रदायिक संगठनों और सामना (राजनीतिक दल शिवसेना का मुखपत्रऔर मराठी दैनिक नवकाल जैसे समाचार पत्रों के लेखों द्वारा सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ प्रचार करके हिंदूओं को भड़काने से हुई। ये कथन शिवसेना और उसके नेताओं पर हावी हो गएजिन्होंने अपने बयानों और लेखों तथा शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे द्वारा जारी किए गए निर्देशों द्वारा सांप्रदायिक उन्माद को भड़काना जारी रखा।’”  

रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि “रिकॉर्ड में कोई ऐसी सामग्री मौजूद नहीं थी जो यह सुझाव देती हो कि इस चरण के दौरान भी, कोई ज्ञात मुस्लिम व्यक्ति या संगठन दंगों के लिए जिम्मेदार थे, हालाँकि कुछ मुस्लिम व्यक्ति और मुस्लिम आपराधिक तत्व हिंसा, लूट-पाट, आगजनी और दंगों में लिप्त दिखाई देते हैं।” 

आयोग द्वारा नामित प्रमुख शिवसेना नेताओं में पार्टी के संस्थापक बाल ठाकरे और नेता गजानन कीर्तिकरमधुकर सरपोतदार और मिलिंद वैद्य शामिल थे। आयोग ने मुसलमानों के विरुद्ध पुलिस बल के “अंतर्निहित पूर्वाग्रह” के बारे में भी बात की। रिपोर्ट में 11 घटनाओं को सूचीबद्ध किया गया था जिनमें 31 पुलिस अधिकारियों को सक्रिय रूप से दंगोंसांप्रदायिक घटनाओं या लूटपाट और आगजनी आदि की घटनाओं में भाग लेते पाया गया था रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि सरकार उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाही करे।  

अपनी की गई कार्यवाही की रिपोर्ट में, शिवसेना-बीजेपी सरकार ने कुछ ऐसी वजहों को सूचीबद्ध किया, जिन्होंने हिन्दू और मुस्लिमों के बीच कड़वाहट को और बढ़ाया। ये वजहें थीं 

अल्पसंख्यकों के लिए विशेष नागरिक संहिता; 

शाह बानो मामले में फैसलों का पलटा जाना; 

वंदे मातरम गाने का विरोध;  

नमाज़ के लिए लाउडस्पीकरों का उपयोग और नमाज अदा करने वाली भीड़ों के द्वारा सड़कों पर बाधा डालने के कारण जनता को हुई असुविधा;  

मौलवियों को दिया गया मानदेय; 

हज-यात्रा के लिए दी गई रियायत।  

आयोग ने यह भी कहा कि यह अलगाव की भावना और आपसी अविश्वास हिंसा के उन चरणों के लिए जिम्मेदार हैं जो दिसम्बर 6, 1992 में मस्जिद के विध्वंस से शुरू होकर जनवरी 6, 1993 तक जारी रही।  

हालाँकि, सरकार ने कहा कि वह राज्य में पुलिस विभाग में सुधार के सुझावों को स्वीकार करती है, लेकिन वह “आयोग के निष्कर्षों से सहमत नहीं हो सकती।” कॉंग्रेस-एनसीपी सरकार के सत्ता में आने पर भी सुझावों को कभी स्वीकार नहीं किया गया।

तब सेउन सांप्रदायिक दंगों के पीड़ित बाद की सरकारों से न्याय का इंतजार कर रहे हैं लेकिन इस तरह की रिपोर्टों के कारण, उनके पास अभी भी उम्मीद की कुछ किरण बाकी है।

रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट

2004 में काँग्रेस पार्टी द्वारा आम चुनावों के जीतने के बाद, अल्पसंख्यकों के आरक्षण के मुद्दों की जाँच और रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग आकार ले रहा था। यह काँग्रेस पार्टी द्वारा अपने चुनावी घोषणा पत्र में किया गया एक वादा था।  

29 अक्तूबर 2004 के दिन, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय ने संदर्भ की निम्नलिखित शर्तों के साथ अधिसूचना नं 1-11/2004-MC (D) जारी की 

(a) धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने के लिए मापदंड का सुझाव देना; 

(b) धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए शिक्षा और सरकारी रोजगार में आरक्षण सहितउपायों का सुझाव देना; तथा 

(c) इसके सुझावों के कार्यान्वयन के लिए आवश्यक संवैधानिककानूनी और प्रशासनिक तौर-तरीकों का सुझाव देना। 

पाँच महीने बाद, सर्वोच्च न्यायालय, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा के साथ अन्य तीन सदस्यों को नियुक्त किया गया। उन्होंने 21 मार्च 2005 को कार्यभार संभाला और वे 21 मई 2007 को प्रधानमंत्री के समक्ष अपने सुझाव प्रस्तुत करने में सक्षम रहे।  

मिश्रा आयोग की सिफारिशों में एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण थी। इसने पाया कि केवल हिन्दूबौद्ध और सिक्खों को अनुसूचित जातियों (अनुसूचित जाति आदेश1950) के रूप में वर्गीकृत करना असंवैधानिक था और इसलिए उसे हटाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सोसाई बनाम भारत संघxi में भारत का सर्वोच्च न्यायालय, यह ध्यान देने में विफल रहा कि 1936 का पुराना अनुसूचित जाति आदेश केवल सामान्य धारणाओं पर आधारित था कि किसी वास्तविक सर्वेक्षण पर। अनुसूचित जाति आदेश1950जिसे कुछ और जातियों को शामिल करने के लिए संशोधित किया गया थादेश में जाति की स्थिति के किसी भी वैज्ञानिक सर्वेक्षण का परिणाम नहीं था और यह 1936 के अनुसूचित जाति आदेश पर आधारित था। 

इसलिएऐसे मुस्लिम और ईसाई जो पहले हिंदू अनुसूचित जाति के थेवे अपने धर्म को बदलकर भेदभाव से बचने या अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार करने में सक्षम नहीं थे। यह सिफारिश एनसीएम ने अपनी 1998-99 की वार्षिक रिपोर्ट में भी की थी: 

सुझाव दिया गया कि संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 [1956-90 का संशोधित संस्करण] में की गई छेड़खानी को हटाया जाए जो इसके दायरे को विशेष समुदायों तक सीमित करती है, क्योंकि उक्त आदेश में निर्दिष्ट जातियों के मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जातियों को मिलने वाले सामाजिक-आर्थिक लाभों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।”xii 

फिलहालभारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कई रिट याचिकाएँ लंबित हैंजिनमें मांग की गई है कि संविधान (अनुसूचित जातिआदेश 1950 के खंड को कुछ समावेशनों के लिए जगह बनाने हेतु संशोधित किया जाना चाहिए। 

प्रमुख रिट याचिका, जनहित याचिका केंद्र और अन्य बना भारत संघ [डब्ल्यू.पी.(सी) 180/2004xiii] को भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर किया गया था। इसमें मांग की गई है कि संविधान (अनुसूचित जातिआदेश 1950 के खंड को असंवैधानिक और अमान्य घोषित किया जाए। इसमें यह मांग भी की गई है कि नौकरियोंऔर राजनीतिक आरक्षणआदि में मिलने वाले जिन लाभों से अनुसूचित जाति (ईसाइयोंको वंचित किया जाता हैउन्हें असंवैधानिक और अमान्य घोषित किया जाए।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी)

पृष्ठभूमि 

एनएचआरसी 23 सितंबर 1993 को एक अध्यादेश के माध्यम से अस्तित्व में आया था। बाद में इसे मानवाधिकार अधिनियम 1993 द्वारा बदल दिया गयाजिसे जनवरी 1994 में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल गई। आयोग में एक अध्यक्षचार पूर्णकालिक सदस्य और चार मान्य सदस्य होते हैं। यह अधिनियम आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की योग्यताओं के लिए आधार प्रदान करता है।  

एनएचआरसी के कार्य 

पीएचआर अधिनियम की धारा 12 के तहत, आयोग: 

उक्त न्यायालय के अनुमोदन से मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों की जाँच कर सकता है और उन न्यायिक कार्यवाहियों में हस्तक्षेप कर सकता है जिमें मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप शामिल हैं। 

राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन किसी भी जेल या संस्थान के कैदियों की परिस्थितियों पर सरकार को सुझाव प्रदान कर सकता है। 

संविधान या मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने किसी भी कानून के तहत सुरक्षा उपायों की समीक्षा कर सकता है और प्रभावी कार्यान्वयन के उपायों का सुझाव दे सकता है। 

समाज के लिए उपलब्ध सुरक्षा उपायों के बारे में जागरूकता फैलाना सुनिश्चित करेगा और नागरिक समाज के सदस्यों को मानव अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में ले जाने और कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। 

शिकायतों के सम्बन्ध में, एनएचआरसी के पास नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत मुकद्दमा चलाने वाले नागरिक न्यायालय की शक्तियाँ मौजूद हैं। इसमें शामिल हैं:  

गवाह को बुलाना और उनकी उपस्थिति सुनिश्चित करना ताकि शपथ के अधीन उनकी जाँच की जा सके 

किसी भी दस्तावेज की खोज और प्रस्तुति  

साक्ष्यों को शपथपत्रों पर प्राप्त करना 

किसी भी न्यायालय या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकार्ड या प्रतिलिपि की मांग करना  

आयोगों को गवाहों और दस्तावेजों की जाँच करने का आदेश जारी करना  

एनएचआरसी केंद्र या राज्य सरकार के किसी भी अधिकारी या जाँच एजेंसियों का उपयोग जाँच करने के लिए कर सकता है। जाँच पूरी होने के बाद, आयोग एक सरकारी प्राधिकरण सुझाव भेजकर उन्हें यह करने के लिए कह सकता है:  

शिकायतकर्ता/पीड़ितों को नुकसान के लिए मुआवजा दिया जाए; तथा  

अभियोजन की कार्यवाहियाँ शुरू की जाएं।  

आयोग निर्देशआदेश या रिट के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय का रुख भी कर सकता है। 

धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की दिशा में एनएचआरसी की भूमिका  

न्यायमूर्ति जे.एसवर्मा की अध्यक्षता में एनएचआरसी के कुछ महत्वपूर्ण हस्तक्षेप थे पीड़ितों को कानूनी सहायता प्रदान करना और पाँच महत्वपूर्ण मामलों को केंद्रीय जाँच ब्यूरो को हस्तांतरित करने की सिफारिश करना बलात्कार पीड़ितों में से एकविशेष रूप से बिलकिस याकूब रसूल19 से 22 मार्च 2002 तक गोधरा में एक राहत शिविर में अध्यक्ष की अगुवाई वाले दल से मिली उसने सदस्यों को बताया कि पुलिस ने न्यायालय को सूचित किया कि वे दोषियों का पता नहीं लगा सके और इसलिए मामला बंद कर दिया जाए। और उसकी अनुपस्थिति में न्यायालय ने इसे स्वीकार कर लिया।  

गुजरात में आयोग के विशेष प्रतिवेदक, श्री पी.जी.जेनम्पुथिरी ने आयोग को सूचित किया कि बिलकिस अपने कानूनी विकल्पों को जारी रखना चाहती है और भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मामला दायर करना चाहती है। बिलकिस याकूब रसूल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की गई और 23 अप्रैल 2019 को न्यायालय ने गुजरात सरकार को बिलकिस बानो को मुआवजा देने और नौकरी प्रदान करने का निर्देश दिया।

2008 में, 2002 के गुजरात दंगों के दौरान गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार के पीड़ितों में से एक द्वारा दायर याचिका के जवाब में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक तीन-सदस्यीय विशेष जांच दल (एसआईटीका गठन किया गया। अप्रैल 2012 मेंवर्तमान प्रधान मंत्री (गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्रीनरेंद्र मोदी को दंगों में किसी भी भागीदारी से दोषमुक्त कर दिया गया। यह एसआईटी का नेतृत्व करने वाले आर के राघवन की रिपोर्ट से विशेष सलाहकार श्री रामचंद्रन की असहमति के बावजूद हुआ था।

फिलहाल दंगों में मारे गए पूर्व सांसद अहसान जाफरी की पत्नी जकिया जाफरी द्वारा दायर विशेष अवकाश याचिका लंबित है।xviii वह गुजरात उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती दे रही हैं जिसमें प्रधानमंत्री मोदी और अन्य आरोपियों को दी गई क्लीन चिट को बरकरार रखा गया है। 

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग

भारत के संविधान का भाग कुछ वर्गों के व्यक्तियों के लिए विशेष प्रावधानों से सम्बन्धित है। संविधान के निर्माता जानते थे कि कुछ समुदाय अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं के कारण अत्यधिक सामाजिकशैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन से पीड़ित हैं। ये पूर्वाग्रह आदिम कृषि प्रथाओंबुनियादी सुविधाओं की कमी और भौगोलिक अलगाव से पैदा हुए थे। इसलिए केवल उनके हितों की रक्षा के लिए बल्कि उनके सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए भी विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता थी। इन समुदायों को संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 में प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया था। दो संवैधानिक निकायों - राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) का गठन किया गया। 

अनुच्छेद 338 (5) के तहत अनुसूचित जाति आयोग के कर्तव्य इस प्रकार हैं: 

इस संविधान या किसी अन्य कानून के तहत अनुसूचित जाति के लिए प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों से सम्बन्धित सभी मामलों की जाँच और निगरानी करना; 

जब किसी व्यक्ति को इन अधिकारों और सुरक्षा उपायों से वंचित किया जाए तो विशिष्ट शिकायतों की जाँच-पड़ताल करनातथा  

अनुसूचित जातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया का मूल्यांकन करना और सलाह प्रदान करना और राष्ट्रपति के समक्ष उनकी रक्षा और स्थिति में सुधार करने के सुझावों साथ रिपोर्ट प्रस्तुत करना। 

राष्ट्रपति के समक्ष रिपोर्ट वार्षिक रूप से या ऐसे समय में प्रस्तुत की जाती है जिसे आयोग सही समझता हैइसे संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाता है। यदि कोई रिपोर्ट किसी विशेष राज्य सरकार से सम्बन्धित हैतो उसे उस राज्य की विधानमण्डल के समक्ष रखा जाएगा। 

जब इसके सामने एक शिकायत लाई जाती है, तो आयोग के पास मुकद्दमा चलाने के लिए एक नागरिक न्यायालय की सभी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। इसके अधिकार हैं;  

गवाहों को बुलाना; 

किसी दस्तावेज की खोज और प्रस्तुति की माँग करना 

साक्ष्यों को शपथपत्रों पर प्राप्त करना 

किसी भी न्यायालय या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकार्ड या प्रतिलिपि की माँग करना; तथा   

आयोगों को गवाहों और दस्तावेजों तथा अध्यक्ष द्वारा निर्धारित किए गए किसी भी अन्य सम्भावित मामले की जाँच करने का आदेश जारी करना।  

संविधान के अनुच्छेद 338 A के तहत राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के लिए भी समान शक्तियों और कार्यों को बरकरार रखा गया है। 

 

धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की दिशा में एससी/एसटी आयोग की भूमिका

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के समान हीअनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के आयोग भी केंद्र और राज्य सरकारों पर निर्भर हैं। लेकिन एससी और एसटी समुदायों के सदस्यों पर किए गए अत्याचारों का संज्ञान लेने के लिए न्यायपालिका के तहत विशेष न्यायालय स्थापित किए गए हैं। एससी/एसटी आयोग ने इन न्यायालयों की स्थापना करने में मुख्य भूमिका निभाई है जो नागरिक अधिकार अधिनियम, 1955 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारणअधिनियम, 1989 के तहत मामलों की जाँच करते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि नीति अनुसंधान केंद्र के अनुसार“अनुसूचित जातियों के सदस्यों के विरुद्ध हुए अत्याचार एससी और एसटी के विरुद्ध  हुए संयुक्त अपराधों का 89% हैं।

एससी/एसटी आयोग ने 1990 में एक अध्ययन कियाजिसे “अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार कारण और उपाय कहा जाता हैऔर इसमें विभिन्न कारकों को इंगित किया गया है: 

भूमि विवाद; 

भूमि से बेदखल करना 

बंधुआ मजदूरी; 

ऋणग्रस्तता; 

न्यूनतम मजदूरी का भुगतान  करना 

जातिगत पक्षपात और अस्पृश्यता का अभ्यास; 

जातिगत पंक्तियों पर राजनीतिक उपद्रवतथा  

पारंपरिक काम करने से मना करना जैसे कि दफनाने के लिए गड्ढे खोदनाकृतियों की व्यवस्था करनामृत जानवरों के शवों को निकालना और ढोल पीटना; इत्यादि।  

इन अत्याचारों की गहरी जड़ों का पता जाति व्यवस्था से लगाया जा सकता है, “जिसमें तथाकथित संस्कारिक रीति से पवित्रता के आधार पर सामाजिक समूहों की पूरी क्रम व्यवस्था समाहित है। एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है उसे उस जाति का सदस्य समझा जाता है और वह मृत्यु तक उस जाति के भीतर बना रहता है...”

संस्कारिक रूप से अपवित्र समझे जाने वालेअनुसूचित जाति के सदस्यों को शारीरिक और सामाजिक रूप से समाज की मुख्यधारा से बाहर रखा गया हैबुनियादी संसाधनों और सेवाओं से वंचित किया जाता रहा हैऔर उनके साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में भेदभाव किया गया है। तदनुसारवे विभिन्न प्रकार के शोषणअपमान और हिंसा के साथ-साथ अस्पृश्यता की अपमानजनक प्रथा का सामना करते हैं। 

अनुसूचित जनजातियों का जाति व्यवस्था के भीतर  आने बल्कि अपनी विशिष्ट संस्कृति और अपना निजी दृष्टिकोण होने के आधार पर बराबरी से शोषण किया गया था। 

इन जातियों और जनजातियों से सम्बन्ध रखने वाली महिलाओं ने दुगना बोझ उठाया। जाति और लिंग के आधार पर उनका शोषण किया गया, और वे यौन शोषण के विरुद्ध संवेदनशील और शक्तिहीन थीं। 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने .प्र. राज्य और अन्य बनाम राम किशन बालोठिया और अन्य के मामले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारणअधिनियम 1989 की धारा 18 की संवैधानिकता को बरकरार रखा। यह अधिनियम अभियुक्त की अग्रिम जमानत के प्रावधानों से इनकार करता है। न्यायालय ने देखा:  

“धारा के तहत जिन अपराधों की गणना की गई हैवे ऐसे अपराध हैंजो कम से कमसमाज की नज़र में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को बदनाम करते हैंऔर उन्हें गरिमा और आत्मसम्मान का जीवन जीने से रोकते हैं। ऐसे अपराध अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को अपमानित करने और उन्हें गुलामी की स्थिति में रखने के उद्देश्य से किए जाते हैं। 

वह अनुसूचित जाति समुदायखासकर जो हिंदूबौद्ध और सिख नहीं हैं (एससी ऑर्डर 1950), का मुख्य मुद्दा यह है कि उन्हें विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं से बाहर रखा गया है। इसमें अनुसूचित जाति आयोगों  तथा अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम जैसे कानूनों का संरक्षण शामिल है। जैसा कि पहले चर्चा की गई हैइस धार्मिक भेदभाव की राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और एससी/एसटी आयोगों द्वारा आलोचना की गई है। 

निष्कर्ष

भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का भविष्य क्या है  

गाँधी के सिद्धांत और आदर्श भारत और अन्य देशों और संस्कृतियों को यह दिखाने में प्रेरणा और उदाहरण रहे हैं कि विविधता में एकता कैसे काम करती है। दुर्भाग्य सेयह कोई रहस्य नहीं है कि हाल ही मेंगाँधी के अपने देश ने अपने ही धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अत्याचार और उत्पीड़न में खतरनाक वृद्धि दर देखी है। 

उनकी जयंती परसामाजिक कार्यकर्ता और वकील प्रशांत भूषण ने नई दिल्ली में गांधी पीस फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक लेक्चर दियाजिसमें उन्होंने यह टिप्पणी की, इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांधी आज के भारत को देखते हुए व्याकुल और निराश होते। क्या वे यह कल्पना कर सकते थे कि ब्रिटिश राज से स्वतंत्र होने के 70 साल से अधिक समय के बादहमारा समाज एक अलग रूप धारण कर लेगा और झूठघृणा और हिंसा की और अधिक जहरीली गुलामी में चला जाएगा।

उपरोक्त सभी आयोगों के विभिन्न कार्यों और कर्तव्यों के विश्लेषण के बादयह स्पष्ट है कि उन्हें सबसे आगे रहना चाहिए ताकि लोकतांत्रिक प्रणाली काम करती रहे। लेकिन वे जिस आलोचना का सामना करते हैंवह उनकी कोई  वास्तविक शक्ति न होने की कमी को उजागर करती है। यहाँ तक कि जिस तरह से उनके सदस्यों को नियुक्त किया जाता है यह संदिग्ध है क्योंकि हर आने वाली सरकार सिर्फ अपने ही मुखपत्र को शिखर पर रखती है। 

दिल्ली वक्फ बोर्ड के एक सदस्य ने  वायर से कहा“हमें इन संस्थानों के अध्यक्षों की विश्वसनीयता पर उनकी राजनीतिक संबद्धता के कारण हमेशा संदेह करना चाहिए।” उन्होंने सुझाव दिया कि सरकार को अल्पसंख्यक संस्थानों के कानूनी ढाँचे को मजबूत करना चाहिए और यहाँ तक कि जब अध्यक्ष का चुनाव करने की बात आती है तो समुदाय के भीतर साधारण लोगों द्वारा मतदान शुरू करवाने पर विचार करना चाहिए।

हालाँकिहमने समान रूप से उस प्रभावशीलता को देखा हैजो पूछताछ और जाँच करते समय इन आयोगों को हासिल हुई है। इसने  केवल मुद्दों पर प्रकाश डाला हैबल्कि एक स्वतंत्र और वैकल्पिक दृष्टिकोण भी प्रदान किया है। 

वेअक्सरखासकर कठिन समयों मेंआशा की किरण बन जाते हैं। फरवरी में 2020 के दिल्ली दंगों के बाद दिल्ली राज्य अल्पसंख्यक आयोग की प्रतिक्रियाइसका एक और शानदार उदाहरण हैजब इसकी 10-सदस्यीय समिति ने राज्य और पुलिस नेतृत्व की कार्यवाही के अभाव की भर्त्सना करते हुए और अपराधियों को जवाबदेह ठहराते हुए एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। हो सकता है कि राज्य आयोग द्वारा जुटाए गए और जाँच किए गए सबूतों से निकाला गया निष्कर्ष सरकार द्वारा स्वीकार  किया जाए। लेकिन उन्होंने फिर भी अपना काम किया और इससे उन लोगों को आशा की अनुभूति होती हैजिन्हें इसकी आवश्यकता है।