विश्वास और आराधना/पूजा की स्वतंत्रता को समझना

धर्म या विश्वास की स्वतंत्रता के विषय मे भारत का मुख्य संवैधानिक ढांचा

भूमिका

विश्व के सबसे बड़ा लिखित संविधान धर्म की स्वतंत्रता के विषय के ऊपर 4 अनुच्छेदों में विस्तार से वर्णन करता है। अनुच्छेद 25 इस बात को मान्यता देता है कि सभी लोगो को स्वतंत्रत रूप से किसी भी धर्म का अभ्यास करने या उसको मानने तथा उसका प्रचार करने का अधिकार है। अनुच्छेद 26 एक धार्मिक संस्थान को स्वंय संचालित करने की शक्ति प्रदान करता है। अनुच्छेद 27 बहुत ही सरलता से, किसी एक विशेष धर्म को फैलाने और बढ़ाने के लिए जबरदस्ती कर देने पर मजबूर करने से भारतीयों को सुरंक्षा प्रदान करता है। तथा अनुच्छेद 28 छात्रों को, राज्य द्वारा सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में किसी भी प्रकार के धार्मिक निर्देशो का जबरदस्ती पालन करने बचाता है।

इनके अलावा भी संविधान में अन्य प्रावधान भी है जो आंशिक रूप से धार्मिक स्वतंत्रता के उपयोग की अनुमति प्रदान करते है। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 15 के अन्तर्गत धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव निषेध है, अनुच्छेद 16 में सभी मतो/धर्मो के लोगो को सार्वजनिक रोजगार के समान अवसर मिलने चाहिए तथा अल्पसंख्यको का अधिकार इसमे धार्मिक अल्पसंख्यक भी सम्मिलित है - अनुच्छेद 30 के अन्तर्गत, वे शैक्षणिक संस्थानो को भी चला सकते है।

यह प्रवेशिका अदालत द्वारा अनुच्छेद 25 और 26 के सम्बंध में दिए गए फैसले पर केन्द्रित है, और उनके लागूकरणो/निहितार्थो का अनुवाद करती है जब एक व्यक्ति को विवेक की स्वतंत्रता या किसी एक धार्मिक गुट को अपने मसलो को खुद सुलझाने का अधिकार है, और अब वह राज्य के विशेषाधिकार के कारण एक निर्णायक मोड़ पर है कि वे सामाजिक कल्याणकारी कार्यो को करे या यहां तक कि उनके धार्मिक विषयो में सुधार भी करे। यहां निहितार्थो/लागूकरण या लागूकरणों व्यक्ति तथा समुदाय के लिए बहुत भिन्न है।

धार्मिक स्वतंत्रता का वचन/वायदा

अनुच्छेद 25, विवेक की स्वतंत्रता तथा धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता।

1. लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्नय तथा इस भाग के अन्य उपबंधो के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अन्तः करण (विवेक) की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।

2. इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नही डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नही करेगी जो

(क) धार्मिक आचरण से संबंध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है;

(ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुआंे की धार्मिक संस्थाओ को हिन्दुओं के सभी वर्गो और अनुभागों के लिए खोलने का उपबंध करती है।

वर्णन 1: कृपाण को पहनना तथा साथ ले जाना सिख धर्म के आचरण और प्रचार मे शामिल माना जाएगा।

वर्णन 2: उप खण्ड (ख) मे, जो अनुच्छेद हिन्दुओं के विषय मे कहा गया है, उसमे सिख, जैन या बौद्ध धर्म को मानने वालो को भी सम्मिलित किया जाए तथा हिन्दु धार्मिक संस्थानांे को भी इसके अनुसार ही बनाया जाए।

अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यो के प्रबंध की स्वतंत्रता लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्नय के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी अनुभाग को

(क) धार्मिक और पूर्त प्रयोपनों के लिए सस्थाआंे की स्थापना और पोषण का;

(ख) अपने धर्म विषयक कार्यो का प्रबंध करने का;

(ग) जंगम और स्थावर सम्पति के अर्जन और स्वामित्व का और;

(घ) ऐसी सम्पति का विधि के अनुसार पशासन करने का, अधिकार होगा।

इन प्रावधानो को पढ़ने मात्र से ही यह स्पष्ट हो जाता है किः

भारत के सभी लोग, चाहे नागरिक है या नहीं, उन्हे अपने धर्म या मत का स्वतंत्रत रूप से अभ्यास या अनुसरण करने का अधिकार है जिसमे उनके धर्म का प्रचार करने या दूसरों को बताने का अधिकार भी शामिल है। एक व्यक्ति दूसरो के धर्म को ध्यान में रखते हुए भी अपने विचार या राय को बांट सकता है। मुख्यतौर से, समाज के सभी लोगांे को यह अधिकार समान रूप से दिया गया है।

काफी समझ से, यह अधिकार परम सिंद्धात या निरकंुश नहीं है क्योकि यह सार्वजनिक आदेश, नैतिकता, स्वास्थ्य तथा अन्य सभी सह आधारभूत अधिकारो के द्वारा शासित किया जाता है जो कि इस सविधान के अनुच्छेद के भाग 111 के अन्तर्गत दिया गया है।

यह कहने के बाद राज्य के पास यह शक्ति या अधिकार है कि वह किसी भी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को विनयमित कर सकता है जो कि किसी भी धार्मिक अभ्यास से जुड़ी हुई हो। राज्य समाज के बहुसंख्यक लोगों की भलाई के लिए किसी पुराने या अप्रचलित धार्मिक रीति रिवाज को कानून पारित करके बदल सकता है। भारतीय संदर्भ मे यह बहुत ही अनोखी बात है, बहुत सी हिन्दु सस्थाएं, विशेषकर मंदिरो में केवल एक जाति के सदस्यों या लोगों को प्रवेश की अनुमति देते है। परन्तु राज्य इन प्रतिंबधो को हटा कर हिन्दु जाति के सभी वर्गो और जातियों को सभी हिन्दु सार्वजनिक संस्थानों में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान कर सकता है। संविधान का ढाँचा जानबूझकर राज्य को ऐेसे अंधिकार प्रदान करता है ताकि पुराने युग से चले आ रहे भेदभाव पूर्ण प्रतिंबधो को हटाया जा सके।

एक धार्मिक समुद्राय के पास धार्मिक तथा धर्मार्थ संस्थानो को चलाने का, अपनी सम्पति रखने का तथा अपने धर्म विषय कार्यो का प्रबंध करने का आधारभूत अधिकार यह कानून (अनुच्छेद) प्रदान करता है। एक व्यक्तिगत के अधिकार के विपरीत, एक संस्थान का अधिकार लोक व्यवस्था सदाचार तथा स्वास्थ्य के अधीन होती है।

अनुच्छेद 25 और 26 का निकटतम अवलोकन/दृष्टिकोण

जब हम धार्मिक स्वतंत्रता के विषय में गहन शोधन/छानबीन करते है तो, हम जान पाते है किः

धर्म के लिए एक व्यक्तिगत का संवैधानिक अधिकार न केवल राज्य के विरूद्ध बल्कि साथ ही अन्य लोगों और संस्थाओ के विरूद्ध भी लागू करने योग्य है। जब एक व्यक्ति के विश्वास मे राज्य द्वारा दखलअंदाजी की जाती है तो संविधान द्वारा समानता, भेदभाव धर्म के आधार पर न करना जैसे आधारभूत अधिकार राज्य के सामने रखे जा सकते है। और जब किसी गैर राज्य विभाग के द्वारा भी धार्मिक अभ्यास में दखलअंदाजी की जाती है तो सभी धर्म के मनुष्यो को समान सार्वजनिक सुविधाएं तथा रक्षा प्रदान करने का अधिकार अहम भूमिका निभाता है।

जैसा कि पहले ही विचारविमर्श किया गया है, कि किसी व्यक्तिगत के लिए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को काफी महत्त्व दिया गया है तथा इसे संविधान के अन्तर्गत आए अन्य आधारभूत अधिकारो के अधीन भी माना गया है। तथा यह लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य संबंधित बातो के भी अन्तर्गत आता है। हालांकि इन सभी बाध्यताओ का भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्ण रीति से अनुवाद न किए जाने के कारण यह एक व्यक्ति के अधिकार को अपंग बना देता है तथा अनुच्छेद 25 (1) को पढ़ने पर हमे जो दिखाई पढ़ता है उससे काफी विपरीत भी प्रतीत होता है।

अदालत में भारतीय युवा वकील संघ बनाम केरल राज्य जिसे सबरीमाला केस के नाम से जाना जाता है इसमे यह फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 25 (1) के अन्तर्गत एक व्यक्ति को पूजा करने का अधिकार है तथा इसे समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14) के अन्तर्गत लाया गया तथा यह भी बताया गया कि यह असामनता/भेदभाव के अनुच्छेद 15 और 17 के खिलाफ है, तथा इसमे गौरव/मर्यादा का अधिकार (अनुच्छेद 21) भी शामिल है, इसमे एक धार्मिक गुट के अधिकार को भी अधिक्रमण (हटा दिया) कर दिया। अखबार पढ़ने वाले एक साधारण व्यक्ति के लिए, अदालत (कोर्ट) का यह निर्णय मासिक धर्म वाली महिलाओं के लिए दिया गया है (इसमे 10 से 50 वर्ष की महिलाए आती है) तथा यह कहा गया कि इन महिलाओ को भी पुरूषों के समान ही सबरीमाला मन्दिर में एक ब्राहा्रचारी देवता (भगवान) की पूजा करने का समान अधिकार है। परन्तु यह निर्णय सबरीमाला के भक्तों तथा पुजारियों की इच्छा के विरूद्ध था।

अनुच्छेद 25 (2) के अन्तर्गत जब किसी राज्य को धर्म से संबधित किसी धर्मनिरपेक्ष गतिविधि/क्रियाकलाप को लागू करने की अनुमति दी जाती है तो संविधान हमे मुख्य तौर पर यह निर्देश नहीं देता कि कौनसी गतिविधि/कार्य को धर्म निरपेक्ष तथा किसको धार्मिक माना जाएगा। संवैधनिक कानून के विशेषज्ञ गौतम भाटिया मानते है कि ”यदि आप किसी विशेष परिस्थिति के विषय में सोचे जहां पर राज्य तथा धार्मिक अभ्यास करने वालो के बीच में किसी एक विशेष अभ्यास/क्रियाकलाप को लेकर झगड़ा/मतभेद है वो शायद “राजनीतिक“ या “धार्मिक“ हो सकता है वो संवैधानिक पाठ्यक्रम हमे इस विषय पर कोई अग्रिम सफाई/स्पष्टीकरण प्रदान नहीं करता है। इसीलिए यह स्पष्ट है कि अन्ततः इस प्रश्न के उत्तर का अदालत/कोर्ट ही अन्तिम निर्णय दे सकती है कि क्या वह गतिविधि/क्रियाकलाप धार्मिक है या नहीं है।“

अनुच्छेद 25 (2) के समान प्रावधानों में, जहाँ पर एक धार्मिक संगठन/संस्थान को अपने क्रियाक्लापो को स्वंय ही संभालने का अधिकार है अनुच्छेद 26 (ख) के अन्तर्गत, इसमे भी यह बात स्पष्ट नहीं है कि कौनसा विषय/कार्य धार्मिक माना जाए और कौनसा नहीं माना जाए। इन “निःशब्दताओ“ (चुप्पियों) ने जिन्हें हम थोड़ा बहुत ही देखते है, कई दशको से चलने वाली स्पष्ट मार्गदर्शिकाओ/निर्देशो को बनाना अंसभव है, तथा धार्मिक गुटो के कौनसे गतिविधि/कार्य धार्मिक है और कौनसे धर्मनिरपेक्ष इसमे अंतर करना अंसभव है।

अनुच्छेद 25 और 26 के प्रावधानो के अन्दर के इन रिक्त स्थानो के कारण उठने वाली समस्याओ के समाधान के लिए कोर्ट (अदालत) ने एक सिद्धांत को विकसित किया जिसे “आवश्यक धार्मिक अभ्यास“ कहते है। यह सिद्धांत कहता है कि केवल वो ही अभ्यास जिन्हें किसी विशेष धर्म के लिए आवश्यक माना गया है। (धार्मिक संस्थान के लेख को पढ़े) केवल उन्हें ही सुरक्षा प्रदान की जाएगी जो कि संविधान के आधारभूत अधिकार के अन्तर्गत आता हो, तथा इनमे ही एक राज्य के हस्तक्षेप की अनुमति है।

“आवश्यक धार्मिक अभ्यासों“ के सिद्धांत को बनाने के कारण एक और बड़ी बाधा कोर्ट के सामने आ गई, अब संवैधानिक अदालतो को किसी भी धर्म के सिंद्धातों का गहनता से अध्ययन करके यह पता लगाना पड़ता है कि ये “आवश्यक अभ्यास“ कौनसे है।

ख्यातिप्राप्त विधिशास्त्री (कानूनविद) तथा वरिष्ठ वकिल डाक्टर राजीव धवन और फली नारीमन ने अपनी पुस्तक श्ैनचतमउम ठनज छवज प्दंिससपइसमश् अर्थात् “सर्वोच्च लेकिन अचूक नहीं“ में यह टिप्पणी करी है कि न्यायधीश (जज) इन मुद्दों में पूरी रीति से प्रशिक्षित नहीं है तथा अदालत में पेश किये गए कुछ दस्तावेजो या एफिडेविटों के ऊपर ही वे आश्रित होते है, जिसे कि मुकदमे के दौरान पेश किया जाता है। तथा उन्हे अदालत के समय और मुकदमो को ध्यान में रखते हुए इसका फैसला करना होता है। किसी महायाजक/महापुजारी, मौलवी या धर्मशास्त्री से ज्यादा शाक्ति और अधिकार होने के कारण जजो (न्यायधिशो) ने खुद से ही धर्मशास्त्रों पर अपने अधिकार को सोचते हुए यह निर्णय दिया है कि किसी भी विश्वास/मत/धर्म की कौनसी बाते “आवश्यक“ है तथा इस प्रकार से उन्होने उन धर्मो/मतों के आवश्यक अभ्यासों को सवैधानिक शक्ति से कमतर कर दिया है जो संविधान के साथ मतभेद रखते है, “कुछ धार्मिक बिन्दु इस प्रकार शक्ति/अधिकार को धारण करते है।“

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायलय) ने कई धार्मिक अभ्यासों को जांचने शुरू कर दिया है, परन्तु यह इस बात पर आधारित नहीं है कि वो अभ्यास किसी विशेष धर्म के लिए कितने आवश्यक है बल्कि यह उस अभ्यास के खिलाफ किसी याचिकाकत्र्ता की याचिका पर आधारित है। संवैधानिक नैतिकता का हवाला देते हुए, इसे अब एक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता तथा उसके अधिकारो जैसे-“मर्यादा, स्वतंत्रता तथा समानता“ के रूप में बदल दिया गया है तथा इसे ही मुद्दा बनाकर इस पर बहस की जाती है। तथा इस प्रकार से उस व्यक्ति को किसी भी राज्य या धार्मिक समुदाय/मत के अतिक्रमण से सुरक्षा प्रदान की जाती है।

आठ दषको (80 वर्षो) के दौरान अदालत के फैसलों को एक सर्वेक्षण

हाई कोर्ट (उच्च न्यायालय) द्वारा स्वीकार किए गए औचित्य और स्वंयसिंद्धात को बेहतर तरीके से समझने तथा धार्मिक स्वतंत्रता से संबधित कई पैचिदा (कठिन) मुद्दो में सुप्रीम कोर्ट (सर्वोच्च न्यायालय) के निर्णयों को बेहतर तरीके से समझने के लिए, नीचे बनाई गई तालिका काफी उपयोगी होगी, जिसमे अदालत के कई मुख्य निर्णयो को दिखाया गया है। एक विंहगम दृष्टि (बारीकी से) भाटिया ने बड़ी सफाई से उन मुकदमों के सार को बनाया है “जिन मुकदमो“ मे मंदिरों, दरगाहों, मठो, गुरूद्वारांे के संचालन (मैनेजमेन्ट) में राज्य के हस्तक्षेप मुख्य रूप से सम्मिलित है जिनमे मुख्यतौर पर सम्पति का संचालन, अधिकारियों की नियुक्ति तथा धार्मिक समुदायों के सदस्यो के बीच के संबंध या उन सदस्यो द्वारा किए जाने वाले अभ्यास (गौमांस खाना, द्विविवाह (दो शादियाँ), समुदाय से बाहर निकाल देना, ताड़व नाच) इत्यादि शामिल है।

कृप्या इस बात को ध्यान में रखे कि यह कोई विस्तृत सूची नहीं है बल्कि केवल कुछ मुख्य मुकदमो से जुड़ी कुछ जरूरी बाते/मुद्दे है, जिनका जिक्र इस लेख में किया गया था। तथा वे मुकदमे भी सम्मिलित है जिनके किसी धार्मिक संस्थान का मैनेजमेंट सम्मिलित है। केवल इन्ही मुद्दो पर बहस का जिक्र है तथा तर्क के आधार पर लिए गए निर्णय सम्मिलित है। जिन्हें धार्मिक स्वतंत्रता के संबंध में आधार बनाया गया था। तथा फैसला सुनाते वक्त न्यायधीशो द्वारा करी गई टिप्पणियों को भी इसमे शामिल किया गया है। कुछ फैसलो का अलग से जिक्र यह दिखाने के लिए किया गया है किस प्रकार से अदालत ने विभिन्न मतो/धर्मो के आवश्यक दृष्टिकोणो को ध्यान में रखते हुए अपना फैसला दिया। यद्यपि अन्ततः इस प्रकार के मुकदमो को बिल्कुल अलग आधारो पर रखते हुए निर्णय दिए गए जैसा कि इस अनुपात में यह देखा जा सकता है।

  1. क्र.स.
  2. न्याय
  3. मुद्दा
  4. तर्क/बहस (धार्मिक)
  5. प्रासषिक अधिवचन
  6. निर्णय आधार
  7. फैसला

1.

नरासु अप्पा माली

हिन्दुओं में द्विविवाह (दूसरी शादी)

यदि एक व्यक्ति को अपने अंतिम संस्कार के लिए पुत्रों की आवश्यकता हो तथा परिवार को जारी रखने की जरूरत हो तो हिन्दु धर्म बहुविवाह (दूसरी शादी) की अनुमति प्रदान करता है।

द्विविवाह हिन्दु धर्म का अन्तरिम या मुख्य भाग नहीं है। अध्यात्मिक मोक्ष प्राप्ति की इच्छा को दत्तक पुत्र (गोद लिए हुए) के द्वारा भी संतुष्ट किया जा सकता है।

राज्य को इस समाज सुधार को लागू करने का अधिकार है। हिन्दुओं के लिए केवल एक ही विवाह की अनुमति है जो कि अन्य धर्म और समुदायों से अलग है, परन्तु यह अनुच्छेद 14 और 15 के अन्तर्गत भेदभाव पूर्ण नहीं है।

बाॅम्बे कोर्ट द्वारा हिन्दु द्विविवाह को निषेध करने के निर्णय को उचित ठहराया गया।

2.

शिरूर मठ

मठ के मामलो का राज्य प्रबंधन

मठाद्यिपति के सम्पति और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन (कानून द्वारा हनन)

धर्म निरपेक्ष गतिविधियाँ जो कि किसी धर्म से संबंधित है परन्तु उसका कोई जरूरी आवश्यक भाग नहीं है तो उसे राज्य द्वारा नियमित किया जा सकता है। परन्तु कौनसी बाते आवश्यक है यह धर्म की शिक्षा/सिद्धांत के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है।

राज्य विद्यायिका इस प्रकार के कानून को जो सविधान की प्रवेशिका 28, सूची प्प्प्, सारिणी टप्प् के अन्तर्गत आती है, उन्हें लागू करने में सक्षम है। कानून के दुरूपयोग की संभावना के विचार के कारण यह इसे अवैध नहीं बनाता है। राज्य के अधिकारियों की अप्रतिबंधित प्रविष्टि यहाँ तक कि मठ के महापवित्र स्थान में, धार्मिक स्वंतत्रता के उल्लंघन के अन्तर्गत आती है। मठ के महन्त को बिना किसी गलत प्रबंधन के भी सम्पति के अधिकार तथा प्रबंधन संचालन से रोकना संस्थान के प्रबंधन के अधिकार का उल्लंघन माना जाएगा।

मद्रास हिन्दु धार्मिक और धर्मार्थ बन्दोबस्त अधिनियम 1951 आंशिक रूप में उचित ठहराया गया।

3.

वेंकटरमन देवरू

मंदिर में केवल गौड़ सारस्वत ब्राहा्रणों को ही प्रवेश की अनुमति है और किसी को नहीं।

एक संस्थान के मंदिर को सभी के लिए खोलना एक दल के अधिकार का उल्लंघन करता है। गौड़ सारस्वत ब्राहा्रण को एक धार्मिक समुदाय के रूप में अधिकार है कि वह अन्य दलों को मना करें जो उनके समुदाय और संस्थान से संबंधित नहीं है।

मंदिर के अंदर पूजा करने तथा प्रवेश ने मना करने को हिन्दु संस्करण कानून के अन्तर्गत आवश्यक अभ्यास नहीं मान लिया गया, विशेषकर उसके सिद्धांतों के संदर्भ में।

यह कानून वैध/मान्य है, राज्य सामाजिक सुधार तथा विधेय के द्वारा संस्थानों में प्रवेश की अनुमति प्रदान कर सकता है। राज्य के इस अधिकार ने व्यक्तिगत के अधिकार जो कि अनुच्छेद 25 (1) तथा संस्थान के अधिकार अनुच्छेद 26 (इ) के ऊपर विजय प्राप्त करी। यदि मुद्दा मंदिर में जाकर पूजा करने का होगा तो राज्य को अधिकार है कि वह सभी हिन्दु संस्थानों के अधिकार के ऊपर जाकर सबको मंदिर में प्रवेश की अनुमति देगा। हालांकि उस संस्थान को अपनी कुछ विशेष धार्मिक संस्कारो/पूजाओं के लिए सार्वजनिक भीड़ को अलग रखने का अधिकार है।

मद्रास मंदिर प्रवेश प्राधिकरण अधिनियम 1947 को उचित ठहराया गया।

4.

मोहम्मद हनीफ कुरैशी

गौहत्या पर प्रतिबंध

यह धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार जो अनुच्छेद 25 (1) के अन्तर्गत आता है, उसका उल्लंघन करता है।

एक मुस्लिम के लिए गाय की बलि करना अनिवार्य नहीं है।

अनुच्छेद 19(6) के अन्तर्गत गौहत्या तथा गोमांस को बेचने पर प्रतिबंध है तथा बकरी तथा भेड़ के मांस को बेचने पर कोई प्रतिबंध नहीं है तथा इसका व्यवसाय करना भी तर्कसंगत है। अनुच्छेद 48 के अन्तर्गत यह प्रतिबंध वैध ठहरता है, जो कि गोहत्या के प्रतिबंध के कानून को लागू करने का अधिकार राज्य को देता है। कसाई जो कि मवेशियों को मारते है, वो उन लोगों से अलग है जो बकरों तथा भेड़ो को मारते है। एक समझदारी वाला अंतर कसाईयों को अन्य लोगों से अलग करता है। क्योंकि यह कानून मवेशियों की रक्षा करने तथा संभालने के लिए है, इसलिए यह अनुच्छेद 14 का उल्लंधन नहीं करता है।

पशु अधिनियम में सुधार कानून 1956 को आंशिक रूप में सही ठहराया गया।

5.

सरदार सरूप सिंह

सिख गुरूद्वारा की प्रबंधक कमेटी के नामांकन द्वारा ही सदस्यों को सम्मिलित करना।

यह धार्मिक संस्थानों के स्वंय शासन के अधिकार का उल्लंघन करता है।

 

ऐसा कोई भी अधिकारिक लेख नहीं है जो यह दिखाएं कि गुरूद्वारों के प्रबंधन के लिए सिख समुदायों में चुनाव कराएं जाएं। तथा यह सिख धर्म का भाग नहीं है।

सिख गुरूद्वारा अधिनियम 1925 को उचित ठहराया गया।

6.

सरदार सिधना तहेर सैफुदीन

दाई-उल-मुल्ताक को अधिकार है किसी को समाज से बहिष्कृत करने का।

समाज से बहिष्कृत करने का अधिकार दाऊदी बोहरा समुदाय का आंतरिक भाग है तथा उसे अनुच्छेद 26 के अन्तर्गत धर्म की रक्षा के विषय में किसी को बहिष्कृत करने का अधिकार है।

 

धार्मिक आधारों पर जैसे कि पंथ में चूक या सिद्धांत में चूक आदि के आधार पर किसी को बहिष्कृत करना उस धर्म की रक्षा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है तथा अनुच्छेद 26 (इ) के आधार पर यह भेदभावपूर्ण नहीं है जो कि सार्वजनिक क्रम, नैतिकता तथा स्वास्थ के लिए अनुच्छेद 25 (1) तथा अनुच्छेद 26 में दिया गया है। धार्मिक आधार पर बहिष्करण को छोड़कर, अनुच्छेद 25(2)(इ) अन्य किसी भी प्रकार के सामाजिक बहिष्करण की अनुमति नहीं देता है। इस मामले में दखल देना संस्थान के अधिकार का उल्लंघन होगा।

बाॅम्बे बहिष्कार रोकथाम अधिनियम, 1949 को 4ः1 के बहुमत से हटा दिया गया।

7.

जगदीशवरनाड

आनन्द मर्गिस द्वारा सार्वजनिक जुलूस में ताडंव नाच का प्रदर्शन।

ताडंव धार्मिक संस्कार का एक आवश्यक भाग है।

आनन्द मर्गिस के धार्मिक संस्कार में सार्वजानिक ताडंव नाच करना आवश्यक नहीं है।

अदालत के पास यह निर्धारित करने या निर्णय लेने का अधिकार है कि कोई विशेष संस्कार किसी विशेष धर्म के लिए आवश्यक है या नहीं। आनन्द मर्गिस के पास अनुच्छेद 25 और 26 के अन्तर्गत सार्वजनिक स्थान में ताडंव करने का अधिकार नहीं है।

मन्दामास को आदेश दिया गया कि पुलिस कमिश्नर के द्वारा ताडंव नाच को सार्वजनिक स्थान पर करने की अनुमति न दी जाए। तथा धारा 144 के अपराधिक कानून के अन्तर्गत पांच या उससे अधिक लोगों के एक साथ इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगाया जाए। तथा समय की कमी के कारण इसे प्रभावशाली रूप से लागू किया जाए।

8.

इश्माएल फारूखी

क्या पूजा के स्थान को राज्य द्वारा अर्जित/प्राप्त किया जा सकता है।

पूजा के स्थान का अधिग्रहण/कब्जा करना अनुच्छेद 25 तथा 26 के अन्तर्गत मिले धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।

इस्लाम तथा नमाज को मानने या अभ्यास करने के लिए एक मस्ज़िद जरूरी भाग नहीं है। नमाज कहीं भी, यहां तक कि खुले स्थान में भी अदा की जा सकती है। संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत मस्जिद का अधिग्रहण निषेध/मना नहीं है।

अयोध्या कानून 1993 को 3ः2 के अनुपात के द्वारा उचित ठहराया गया।

9.

ज्गदीशवरनाड़ प्प्

आनन्द मर्गिस द्वारा सार्वजनिक जुलूस में ताडंव नाच का प्रदर्शन करना।

ताडंव नाच आनन्द मर्गिस के धार्मिक संस्कार का आवश्यक भाग है तथा यह उनके विश्वास के सिद्धांत पर आधारित है जिसका जिक्र उनकी धार्मिक पुस्तक कर्या-कर्या में किया गया है।

अदालत को यह निर्णय करना है कि क्या यह उस धर्म का आवश्यक भाग है या नहीं। धर्म के स्थायी आवश्यक भागों की रक्षा संविधान द्वारा की जाती है। कोई संस्थान यह नहीं कह सकता कि किसी विशेष तिथि या घटना के बाद से आवश्यक भाग बदल गया है। इस प्रकार के बदलाव आवश्यक भागों के ऊपर केवल एक मडंन या परिष्कार है।

कलकत्ता उच्च (हाई) न्यायालय के आदेश को, जिसमें ताडंव नाच को सार्वजनिक जुलूस में करने की अनुमति दे दी गई थी, उसे 2ः1 के अनुपात के द्वारा रोक दी गई।

10.

भारतीय युवा वकील संघ

सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की उम्र की महिलाओं के प्रवेश के ऊपर प्रतिबंध

सबरीमाला के आराधकों तथा तंत्रियों द्वारा रीति रिवाज़ तथा उपयोग के आधार पर स्त्रियों को प्रवेश न करने देना भी उनके विश्वास का एक आवश्यक पहलू है।

अनुच्छेद 25 (1) के अन्तर्गत मिलने वाले धार्मिक सवतंत्रता तथा आवश्यक धार्मिक अभ्यास के अधिकार संवैधानिक नैतिकता के अधीन आते है जो कि समानता, न्याय, स्वतंत्रता, मर्यादा तथा बन्धुत्व पर आधारित है। मासिक धर्म वाली महिलाओं को रोकना कोर्ट द्वारा सबरीमाला मंदिर के आराधकों तथा तंत्रियों के अधिकार में माना तो गया तौभी अदालत ने इस फैसले को रोक दिया या हटा दिया। क्योंकि यह सविधान के विश्वासो, नैतिकता तथा अन्य आधारभूत अधिकारों का उल्घन्न करता है।

देवसोम बोर्ड द्वारा जारी किए गए निर्देश को, जिसमें स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था, उसे अंसवैधानिक मानते हुए हटा दिया गया।

 

आदल के फैसलों/निर्णयों से सिखने तथा निरीक्षण करने वाली मुख्य बातें।

”आवश्यक अभ्यासो” के सिद्धांत के निवेदनों को निरीक्षिण करते हुए, विभिन्न मुकदमों में अदालतों के फैसलों पर डा. धवन मानते है कि

यद्यपि जस्टिस बी. के. मुखर्जी द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए रचनात्मक बातों की खोज करी गई तौभी ”आवश्यक अभ्यासो” की परीक्षा हमेशा दोधारी साबित हुई है। इसको एक सिद्धांत के रूप में इसलिए बनाया गया था कि कुछ अभ्यासो को दूसरों से ज्यादा महत्त्व दिया जाए परन्तु बाद के मुकदमों में इसे अलग रखने के लिए मुख्य सिद्धांत के रूप में इस्तेमाल किया गया ताकि अति आवश्यक न माने जाने वाले अभ्यासो को पूरी तरह से संविधान की आड़ में हटा दिया जाए या लोगों को उनसे वंचित कर दिया जाए।

कई वर्षो के दौरान ”आवश्यक अभ्यासो” का सिद्धांत एक पेचीदा मार्गदर्शिक वाली पुस्तिका बन गई है जिसके द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता के मुकदमों का निर्णय किया जाता है। अदालत ने अक्सर (ज्यादत्तर) उनके (फायदो) महत्त्व या उनके कमी के ऊपर अपनी टिप्पणी दी है। विशेषकर किसी विशेष धर्म के विशेषज्ञ न होते हुए भी उसके अभ्यास पर टिप्पणी करी है। बड़े ही रोचक रूप से, जब हम ऊपर उल्लेखित मुकदमों के फैसलों को देखते है तो कुछ के निर्णयों में अनुपात या मत को आधार मानते हुए फैसले दिए गए है न कि उनकी ‘आवश्यकताओं या अनिवार्यताओ’ को देखते हुए। शायद यदि कारण/तर्क रहा होगा कि अदालत ने किसी विशेष धर्म या मत के अध्यात्म से संबंधित बातों पर किसी भी प्रकार से सीधी टिप्पणी करने से इंकार कर दिया।

कुछ पेचींदा/जटिल धार्मिक मुद्दो को कोर्ट ने हल करने के लिए एक सरल पहँुच/मार्ग का उपयोग करने का निर्णय भी किया था, और वह यह था कि संविधान मे पहले से ही मौजूद प्रावधानो से असहमत हो जाना जो कि अदालत को किसी धर्म निरपेक्ष गतिविधि को (अनुच्छेद 25 सा) के अनुसार, सही करने या रोकने की अनुमति प्रदान करता है। या फिर समाजिक भलाई या सुधार को जो कि धार्मिक रीति-रिवाज के अधीन है (अनुच्छेद 25 (2) (ख) को लागू कर सके, या फिर किसी सस्ंथान के प्रबंधन के मामलो पर कानून ला सकें (अनुच्छेद 26 (घ))

सबरीमाला केस में बहुमत की राय के विरूद्ध अपनी असहमति को जताते हुए जस्टिस इन्दु मल्होत्रा ने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि यदि स्त्रियो के प्रवेश को सामाजिक अन्याय माना जाता है तो संविधान ने “विशेषतौर पर सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए प्रावधान किया हुआ है तथा सभी हिन्दु धार्मिक सस्ंथानो को सार्वजनिक रूप से सभी वर्गो के लिए खोला गया है जो कि संविधान के अनुच्छेद 25 (2) (ख) के द्वारा प्रभाव मे आता है। अनुच्छेद 25 (2) (ख) एक योग्य बनाने वाला प्रावधान है जो राज्य को अधिकार देता है कि वह सामाजिक असामनता तथा अन्याय की ओर ध्यान दे या संज्ञान ले। हालांकि उन्होने यह भी चेताया कि “अनुच्छेद 25 (2) (ख) के द्वारा जो अनुमति मिली है वह कुछ विशेष आधार पर राज्य द्वारा कानून बनाने की अनुमति देता है न कि कानूनी हस्तक्षेप की।” इस प्रकार से कई जटिल धार्मिक समस्याओ पर ”आवश्यकताओ“ के आधार पर फैसला दिया गया या फिर संवैधानिक नौतिकता के तर्क की सुविधा के आधार पर फैसला सुनाया गया।

संवैधानिक नैतिकता के भेदभावपूर्ण अनुप्रयोग के विचार को धार्मिक स्वंतत्रता के मुद्दो पर फैसला करने के लिए उपयोग करना ऐसा प्रतीत होता है कि इसके कारण संविधान द्वारा धार्मिक समुदायो को दिए गए अधिकारो को कमतर कर दिया है। जबकि संविधान में उन्हे अधिकार है कि वो अपने विश्वासो को माने तथा उनके आधार पर अपने संस्थानो का संचालन करे। अदालत का फैसला इतना आगे बढ़ गया है कि अब वह कहती है कि किसी मत/धर्म का धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी अब आधारभूत अधिकारो के अधीन ही आते है। संविधान के भाग 3 मे रखे गए, संस्थानों के अधिकारो के अभ्यास उनके ऊपर नहीं जा सकते है तथा अर्थहीन संवैधानिक सुरक्षाओ को नही दे सकती विशेषकर यदि वे एक स्वतंत्र संविधान के मूल्यो के ऊपर जाती है।

अदालत ने इस बात को माना है कि “किसी व्यक्ति की प्रधानता, एक ऐसा धागा है जो अधिकारो की गांरटी से होकर गुज़रता है। तथा यहां पर संस्थानो की सुरक्षा के अधिकार अनुच्छेद 25 (2) (ब) के सामने कम हो जाते है, व्यक्तिगत के अधिकार संस्थानो के अधिकारो के ऊपर विजयी साबित होते है। यह बात इस चीज़ को सुनिश्चित करती है कि अनुच्छेद 25 (2) (ब) की संवैधानिक गांरटी किसी अपवर्जनात्मक दावे के द्वारा नष्ट न हो जो कि किसी व्यक्ति की मर्यादा को भंग करती हो। संक्षेप में कहे तो, अदालत ने यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर दी है कि संवैधानिक नैतिकता के अन्तर्गत, एक व्यक्ति के मर्यादा, स्वतंत्रता तथा समानता के अधिकार किसी भी धार्मिक मत या संस्थान के ऊपर विजयी होते है- यद्यपि संविधान मे उसे भी आधारभूत अधिकार माना गया है।

स्पष्ट रूप से संविधान द्वारा दिए गए अधिकारो मे से यह देखना कठिन नही है कि अदालत यह मानती तथा महसूस करती है कि कुछ आधारभूत अधिकार अन्य आधारभूत सिद्धांतो से ज्यादा महत्त्व तथा सुरक्षा पाने के योग्य है, इसी प्रकार से ही इन्हें ”आवश्यक अधिकार“ सिद्धांत भी कहा जाता है। जस्टिस इन्दु मल्होत्रा ने इन्हें चुने हुए अधिकारो का समूह कहा है जो कि ”समानता तथा गैर भदेभाव है, “विशेषकर धर्म के सम्बंध मे तथा यह निश्चय ही संवैधानिक नैतिकता का एक रूप है। हालंाकि धर्म के विषयो मंे समानता तथा गैर भेदभाव को धर्म के मामलो मंे अलग से नही देखा जाना चाहिए। संवैधानिक स्कीम के अन्तर्गत समानता तथा गैर भेदभाव के सिद्धांतो के मध्य में एक सतंुलन होने की बड़ी आवश्यकता है तथा धर्म की स्वतंत्रता की सुरक्षा, विश्वास और पूजा करने जैसे अधिकारो को भी सुरक्षित रखना चाहिए जो कि अनुच्छेद 25 और 26 में मौजूद है।

संवैधानिक नैतिकता इस प्रकार के सभी अधिकारो के बीच में एक संतुलन की मांग करता है, ताकि वह यह बात सुनिश्चित कर सके कि किसी भी मत/धर्म को तुच्छ नही माना गया है। सबरीमाला मुकदमे का संज्ञान लेते हुए, 10 से 50 वर्ष की महिलाओ के प्रवेश पर रोक सबरीमाला मंदिर की पवित्रता को बनाएं रखने का ही एक भाग है, जिसको वर्षो से रीति के रूप में मानकर इसका अभ्यास किया जाता है तथा इसको भी उतना ही सम्मान मिलना चाहिए। यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि विश्वास के विषयो को आराधको की जटिल चितंाओ के रूप मे पहचानना होगा, जिसे कि संवैधानिक प्रावधानो के अन्तर्गत कम नही किया जा सकता है।

सबरीमाला मुकदमे से ही बात को लेते हुए तथा वहाँ के मुद्दे पर यदि हम अपने दृष्टिकोण को थोड़ा ज्यादा बड़ा/चैड़ा करे तो, यदि सच में से 50 वर्ष की महिलाओ को मंदिर मे प्रवेश करने से रोकना भेदभाव पर आधारित प्रश्न है तथा लिंग के आधार पर भी है तो, संभवतः ऐसा किसी भी प्रकार का भेदभाव किसी भी वर्ग के व्यक्ति के साथ भी भेदभावपूर्ण ही माना जाएगा। रोचक रूप से यदि इस वर्ग के लोगो के बीच मंे ही इस मुद्दे को लेकर अलग-अलग विचार हो, जहां एक दल इसे भेदभावपूर्ण अलगाव माने जबकि दूसरा दल इसे एक धार्मिक परम्परा का उल्लंघन मानकर स्वीकार कर ले तो क्या इसे एक वर्ग के भेदभाव की श्रेणी मे रखना समझदारी होगी? ऐसा संभव है कि बाद वाला या दूसरा दल इस अलगाव को उनके धर्म की एक समस्या के रूप में देखता हो जिसे संबोधित करने की जरूरत है यद्यपि यह सब उस विश्वास या धर्म के सदस्यो तथा अगुवो के मध्य मे आदरपूर्वक तथा विवेकपूर्ण तरीके से होना चाहिए।

ऐसा तर्क दिया गया है कि महिलाओ को प्रवेश करने से रोकना एक भेदभावपूर्ण अभ्यास है तथा यह अनुच्छेद 14 के अन्तर्गत समानता के अधिकार का उल्लघन करता है। तथ्य रूप से, अदालत में भी मासिक धर्म के कारण स्त्रियो के अलगाव को अनुच्छेद 17 के अन्तर्गत “अछूत” के रूप मे माना जाएगा। हालंाकि यदि इस विचार को रखते हुए यह देखा जाए कि 10 से 50 वर्ष की महिलाओ के इस विषय पर अपने क्या विचार है कि वो सबरीमाला मंदिर के इस धार्मिक अभ्यास को किस प्रकार देखती है तथा यदि उनके विचारो मे मतभेद पाएं जाएं तो क्या होगा? तो शायद यह अनुच्छेद 14 और 17 को और भी ज्यादा खींचने या हटाने पर विवश कर देगा। वर्गीय भेदभाव का तर्क या तो सभी महिलाओ के लिए समान तथा सत्य होना चाहिए नही तो फिर किसी के लिए भी नही होना चाहिए।

निष्कर्ष

यह स्पष्ट है कि जटिल धार्मिक प्रश्नों को हल/समाधान करने में कोर्ट/अदालत का कार्य सराहनीय है परन्तु यह सभी लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करने के वायदे से चूक जाता है। जैसा कि हम विभिन्न अदालती फैसलों में देखते है कि ”आवश्यक अभ्यासो” की परीक्षा तथा संवैधानिक नैतिकता के तर्क को कई अस्पष्टताओं तथा स्वेच्छाचारिताओं को झेलना पड़ा है तथा उनका लागूकरण अलग-अलग मुकदमो तथा अलग-अलग बंेचो के लिए अलग होता है। यह कहना सुरक्षित होगा कि ”आवश्यकताओ/जरूरी अभ्यासो” का परीक्षण एक पूर्णतः विदेशी तथा अतिरिक्त संवैधानिक विचार था जिसे कि अदालत द्वारा खोजा गया, संवैधानिक नैतिकता की धारणा का भी अपना ही संवैधानिक लिबास है, जहां पर कुछ आधारभूत अधिकारों को अन्य आधारभूत अधिकारो से ऊपर दर्जा दे दिया गया है। इसके अंदर, इस प्रकार की सुरक्षा के आधार को सुनिश्चित करना कठिन है जो केवल कुछ अधिकारों को ही सुरक्षा प्रदान करता है तथा उन अधिकारों को सूचित करना भी काफी कठिन है। सभी के लिए धर्म की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी, चाहे वह नागरिक है या नहीं है, यह एक पवित्र शपथ है तथा किसी भी धर्म और विश्वास के समान ही पवित्र है, जिसकी संविधान रक्षा करता है। संविधान भारत के लोगों को धार्मिक समुदायों तथा व्यक्तिगतों के रूप में धर्म की स्वतंत्रता तथा उनके सृष्टिकत्र्ता की आराधना करने की स्वतंत्रता की शक्ति प्रदान करता है। केवल वार्तालाप तथा आम सहमति से ही धर्म के विवादास्पद प्रश्नों/समस्याओं को पूर्णरूप से हल कर सकते है तथा इससे से देश के सभी लोगों के मध्य में एक स्थाई शांति तथा भाईचारा बना रह सकता है।